________________ *2 दूसरी बात, ‘खरय' इन तीन अक्षरों को जोड़ने पर इस श्लोक में छंदोभंग का दोष भी लगता है, क्योंकि प्रशस्ति के ये श्लोक गाहा छंद में बने हुए हैं। जो कि मात्रा छंद है। ‘खरय' जोड़ने पर 3 मात्राएँ बढ़ जाती हैं, अतः छंद का भंग होता है। तथा 'प्रवचन परीक्षा' जिसे हीरविजयसूरिजी एवं विजयसेनसूरिजी ने भी प्रमाणित किया था, उसके अनुसार पता चलता है कि भूतकाल में भी महावीर चरियं का यह श्लोक प्रमाण के रूप में दिया गया था। वह इस प्रकार था :'गुरुसाराओ धवलाउ खरयरी साहसंतई जम्हा। हिमवंताओ गंगुव्व निग्गया सयलजणपुजा।।* परंतु वास्तव में यहाँ पर मूल है 'निम्मला' शब्द था, जिसे बदलकर जैसलमेर की हस्तप्रत में 'खरयरी' कर दिया गया था, ऐसा नारदपुरी (नारलाई)' से प्राप्त हस्तप्रत के आधार से सिद्ध किया गया था। (प्रवचन परीक्षा प्रस्ताव 4, श्लोक 47-48, पृ. 288) इस गाथा के अर्थ के निरीक्षण से भी 'निम्मला' शब्द ही उचित लगता है, क्योंकि इस गाथा का अर्थ यह है कि जैसे - हिमवंत से गंगा निकली उसी तरह बड़ी महिमावाले एवं शुद्ध चारित्री होने से जो गुरुसार एवं धवल हिमवंत के जैसे थे, ऐसे जिनेश्वरसूरिजी से गंगा की तरह निर्मल साधु परंपरा निकली। यहाँ पर साहुसंतई को गंगा की उपमा के लिए निम्मला शब्द ही उपयुक्त है 'खरयरी' नहीं है, क्योंकि गंगा निर्मल कही जाती है, खरतरी नहीं कही जाती है। अतः “सुविहिआ खरय साहुसंतई” और “खरयरी साहुसंतई” ये दोनों पाठ अशुद्ध एवं प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं। पुण्यविजयजी की वेदना इस तरह के प्रक्षिप्त पाठों के विषय में आगम प्रभाकर पू. पुण्यविजयजी म. ने भी कथारत्नकोश भा.-1 की प्रस्तावना में लिखा है कि *1 देखें इसी ग्रंथ की प्रशस्ति में तथा विजय प्रशस्ति महाकाव्य, सर्ग-10, श्लोक-4 *2 मूल श्लोक इस प्रकार है- गुरुसाराओ धवलाउ निम्मला साहसंतई जम्हा। हिमवंताओ गंगुव्व निग्गया सयलजणपुज्जा॥ इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /023