________________ सं. 1285 से श्रीजगच्चन्द्रसूरिजी से है, और इस ग्रंथ की रचना वि. सं. 1125 में अर्थात् उससे करीब डेढ़ सौ वर्ष पहले हुई थी। और वहाँ गुजराती प्रस्तावना में इस ग्रंथकार श्रीजिनचंद्रसूरिजी को समर्थ तार्किक महावादी श्री सिद्ध सेन दिवाकर सूरिजी कृत संमतितर्क ग्रंथ पर असाधारण टीका लिखनेवाले पू. आचार्यदेव श्रीअभयेदवसूरिजी महाराज के वडील गुरुबन्धु सूचित किया, वह उचित नहीं है। इस संवेगरंगशाला की प्रान्त प्रशस्ति में स्पष्ट सूचन है कि वे अंगों की वृत्ति रचनेवाले श्रीअभयदेवसूरिजी के वडील गुरुबंधु थे, उनकी अभ्यर्थना से इस ग्रंथ की रचना सूचित की है। अभयदेवसूरिजी ने अङ्गों (आगम) पर वृत्तियाँ विक्रम संवत् 1120 से 1128 तक में रची थी, प्रसिद्ध है। इस संवेगरंगशाला के कर्ता ने अन्त में 10026 गाथा से अपनी परम्परा का वंशवृक्ष सूचित किया है। उसमें चौवीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के अनन्तर सुधर्मास्वामी, जम्बूस्वामी, प्रभवस्वामी, शय्यंभव स्वामी की परम्परारूप अपूर्व वंशवृक्ष की, वज्रस्वामी की शाखा में हुए श्रीवर्धमानसूरिजी का वर्णन 1003435 गाथा में किया है। उनके दो शिष्य 1. जिनेश्वरसूरि और 2. बुद्धिसागरसूरि का परिचय 10036 से 10039 गाथाओं में कराया है 'तस्साहाए निम्मलजसधवलो सिद्धिकामलोयाणं। सविसेसवंदणिज्जो य, रायणा थो(थे)रप्पवग्गोव्व।।10034॥ कालेणं संभूओ, भयवं सिरिवद्धमाण मुणिवसभो। निप्पडिम पसमलच्छी-विच्छड्डाखंड-भंडारो।।10035।। ववहार-निच्छयनय व्व, दव्व-भावत्थय व्व धम्मस्स। परमुन्नइजणगा तस्स, दोण्णि सीसा समुप्पण्णा।। 10036 // पढमो सिरिसूरिजिणेसरो त्ति, सूरो व्व जम्मि उइयम्मि। होत्था पहाऽवहारो, दूरंत-तेयस्सि च्ककस्स।।10037॥ अज्ज वि य जस्स हरहास-हंसगोरं गणाण पब्भारं। सुमरंता भव्वा उव्वहंति रोमंचमंगेसु॥10038॥ बीओ पुण विरइय-निउण-पवर-वागरण-पमुह-बहसत्थो। नामेण बुद्धिसागर-सूरित्ति अहेसि जयपयडो।।10039॥ इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /166