________________ तेसिं पय-पंकउच्छंग-संग-संपत्त परम-माहप्पो। सिस्सो पढमो जिणचंदसूरि नामो समुप्पन्नो॥10040॥ अन्नो य पुन्निमाससहरोव्व, निव्वविय-भव्व-कुमुयवणो।' (गाथा 10041 से 10044 तक पहिले दर्शाया है।) भावार्थ- उन (वज्रस्वामी) की शाखा में काल-क्रम से निर्मल उज्जवल यशवाले, सिद्धि चाहने वाले लोगों के लिए राजा द्वारा स्थविर आत्मवर्ग की तरह (?) विशेष वंदनीय, अप्रतिम प्रशमलक्ष्मीवैभव के अखंड भण्डार, भगवान श्रेष्ठ श्रीवर्धमानसूरिजी हुए। उनके व्यवहारनय ओर निश्चयनय जैसे अथवा द्रव्यस्तव और भावस्तव जैसे धर्म की परम उन्नति करने वाले दो शिष्य हुए। उनमें प्रथम श्रीजिनेश्वरसूरि सूर्य जैसे हुए। जिसके उदय पाने पर अन्य तेजस्वि-मंडल की प्रभा का अपहरण हआ था। जिसके हर-हास और हंस जैसे उज्जवल गणों के समह को स्मरण करते हुए भव्यजन आज भी अंगों पर रोमांच को धारण करते हैं। और दूसरे, निपुण श्रेष्ठ व्याकरण प्रमुख बहुशास्त्रकी रचना करने वाले बुद्धिसागरसूरि नाम से जगत् मे प्रख्यात हुए। उनके (दोनों के) पद पंकज और उत्संग-संग से परम माहात्म्य पानेवाला प्रथम शिष्य जिचंद्रसूरि नामवाला उत्पन्न हुआ। ओर दूसरा शिष्य अभयदेवसूरि पूर्णिमा के चन्द्र जैसा, भव्यजनरूप कुमुदवन को विकम्बर करनेवाला हुआ। (इसके पीछे का 10041 से 10044 तक गाथा का सम्बन्ध उपर आ गया है।) / ___10045 गाथा में ग्रंथकार ने सूचित किया है कि-श्रमण मधुकरों के हृदय हरनेवाली इस आराधनामाला (संवेगरंगशाला) को भव्यजन अपने सुख (शुभ) निमित्त विलासी जनों की तरह सर्व आदर से अत्यन्त सेवन करें। 10046 से 10054 गाथाओं में कृतज्ञताका और रचना स्थलका सूचन किया है कि - ‘सुगुण मुनिजनों के पद-प्रणाम से जिसका भाल पवित्र हआ है, ऐसे सुप्रसिद्ध श्रेष्ठी गोवर्धन के सुत विख्यात् जज्जनाग के पुत्र जो सुप्रशस्त तीर्थयात्रा करने से प्रख्यात हुए, असाधारण गुणों से जिन्होंने उज्ज्वल विशाल कीर्ति उपार्जित की है। जिनबिंबों की प्रतिष्ठा कराना, श्रुतलेखन वगैरह धर्मकृत्यों द्वारा आत्मोन्नति करनेवाले, अन्य जनों के चित्त को चमत्कार करनेवाले, जिनमत-भावित बुद्धिवाले सिद्ध और वीर नामवाले श्रेष्ठियों के परम साहाय्य और आदर से यह रचना की है। इस आराधना की रचना से हमने जो कुछ कुशल (पुण्य) उपार्जन इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /167