________________ अभयकुमार रचित काव्य में दो पद्य हैं कि “तस्याभूतां शिष्यौ, तत्प्रथमः सूरिराज जिनचंद्रः। संवेगरङ्गशालां, व्यधित कथां यो रसविशालाम्।। बृहन्नमस्कारफल, श्रोतृलोकसुधाप्रपाम्। चक्रे क्षपकशिक्षां च, यः संवेगविवृद्धये।" भावार्थ- उनके (श्रीजिनेश्वरसूरिजी के) दो शिष्य हुए। उनमें प्रथम सूरिराज जिनचंद्र हुए; जिसने रसविशाल श्रोता लोगों के लिये अमृत-परब जैसी संवेगरंगशाला कथा की, और जिसने बृहन्नमस्कारफल तथा संवेग की विवृद्धि के लिये क्षपकशिक्षा की थी। राजगृह में विक्रम की पंद्रहवीं शताब्दी का जो शिलालेख उपलब्ध है, उसमें उनके अनुयायी भुवनहित उपाध्याय ने संस्कृत प्रशस्ति में श्रीजिनचंद्रसूरिजी की “ततःश्रीजिनचन्द्राख्यो बभूव मुनिपुंगवः। संवेगरङ्गशालां यश्चकार च बभार च॥" भावार्थ- उसके बाद (श्रीजिनेश्वरसूरिजी के पीछे) श्रीजिनचंद्रनामके श्रेष्ठ सूरि हुए, जिसने संवेगरंगशाला की, और धारण-पोषण की। ___-उत्तमोत्तम यह संवेगरंगशाला ग्रंथ कई वर्षों के पहिले श्रीजिनदत्तसूरिज्ञानभंडार, सूरत के तीन हजार पद्य-प्रमाण अपूर्ण प्रकाशित हुआ था। दस हजार, तिरेपन गाथा प्रमाण परिपूर्ण ग्रंथ आचार्यदेवविजयमनोहरसूरि शिष्याणु मुनि परम-तपस्वी श्रीहेमेन्द्रविजयजी और पं. बाबूभाई सवचन्द के शुभ प्रयत्न से संशोधित संपादित होकर, विक्रम सं. 2025 में अणहिलपुर पत्तनवासी झवेरी कान्तिलाल मणिलाल द्वारा मोहमयी मुम्बापुरी से पत्राकार प्रकाशित हुआ है। मूल्य साढ़े बारह रूपया है। गत सप्ताह में ही संपादक मुनिराज ने कृपया उसकी 1 प्रति हमें भेंट भेजी है। इस ग्रंथ के टाइटल के ऊपर तथा समाप्ति के पीछे कर्ता श्रीजिनचंद्रसूरिजी का विशेषण तपागच्छीय छपा है, घट नहीं सकता। 'तपागच्छ' नामकी प्रसिद्धि * तपागच्छ चान्द्रकुल का ही नामान्तरण है, इस अपेक्षा से अर्थघटन किया जा सकता है। -संपादक / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /165