________________ आचार्य जिनपतिसूरि ने संवेगरंगशाला का स्मरण किया है। उनके अनुसार जिन्होंने अर्थात् जिनचंद्रसूरि ने कलिकाल से जिनका नृत्य लुप्त हो गया था, वैसे मनुष्यों के संवेग को नृत्य कराने के लिए विशाल मनोहर संवेगरंगशाला रची। संवेगरंगशाला सुरभिः सुरविटपि-कुसुममालेव। शुचिसरसा मरसरिदिव यस्य कृतिर्जयति कीर्तिरिव॥ - बीजापुर वृतान्त रिक्त संखपर-जैन मंदिर की एक भित्ति में सं. 1326 में अंकित एक शिलालेख में लिखा है कि जिनकी (जिनचंद्रसूरि) कृति संवेगरंगशाला सुगंधित कल्पवृक्ष की कुसुममाला जैसी, पवित्र सरस गंगानदी जैसी और उनकी कीर्ति जैसी जयवंती है। तस्याभूतां शिष्यो, तत्प्रथमः सूरिराज जिनचंद्रः। संवेगरंगशालां, व्यधितकथां यो रसविशालाम्।। वृहन्नमस्कारफलंनंदीतुलोकसुधाप्रपाम्। चक्रे क्षपकशिक्षां च, यः संवेगविवृद्धये। - अभयकुमार चरित काव्य उपाध्याय चंद्रतिलक के अनुसार सूरिराज जिनचंद्र ने हम विशाल श्रोता लोगों के लिए अमृत प्रपा जैसी 'संवेगरंगशाला' कथा की और वृहन्नमस्कारफल तथा संवेग की विवृद्धि के लिए 'क्षपक शिक्षा' की रचना की थी। ____ इस प्रकार हम देखते हैं कि उक्त उल्लेख से यह प्रमाणित होता है कि आचार्य जिनचंद्रसूरि ने विविध धार्मिक साहित्य की संरचना की थी, जिनमें संवेगरंगशाला/आराधना नाममाला ग्रंथ विशिष्ट है। प्रतिबोध आचार्य जिनचंद्रसूरि ने अपने प्रभाव से अनेक लोगों को जैन बनाया। यति श्रीपाल ने लिखा है कि आचार्य जिनचंद्रसूरि ने श्रीमाल और महत्तियाण जातियों को पुनः प्रतिबोध देकर जैन बनाया। - जैन शिक्षा प्रकरण, उद्धृत-ओसवाल वंश, पृष्ठ 38 / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /152 )