________________ यह ग्रंथ उन्होंने अपने लघु गुरु-भाई आचार्य अभयदेव की प्रार्थना से निबद्ध किया था। इस ग्रंथ को साहित्य-संसार में अत्यधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। उपर्युक्त कृतित्व की जानकारी परवर्ती विद्वानों ने आचार्य जिनचंद्र की प्रशंसा करते हुए उनकी रचनाओं की भी प्रशंसा की है। -:खरतरगच्छ आचार्यों द्वारा संवेगरंगशाला की अनुमोदना के उदाहरणःसिर अभयदेवसूरि पत्तकिसती परं भवणे। जैग कुबोह महारिअ बिहम्ममाणस्सनरव हस्सेव।। सुयधम्मरस दृढ़त्तं, निव्वत्तियमं गवित्तीहिं। तमसत्यणवसओ सिर जिण चंदमुनिवरेइमाण। मालागारेण व उच्चिअणवरवयण कुसुमाह। मूलसुय-काणणाओ गुंथित्ता निययभई गुणेण ढंढ।। __ -संवेगरंगशाला 10041-34 संवेगरंगशाला के सम्बन्ध में लिखा है कि भुवन में श्रेष्ठ कीर्ति पानेवाले अभयदेवसूरि हुए। जिन्होंने कुबोध रूप महारिपु द्वारा विनष्ट किये जाते नरपति जैसे श्रुतधर्म का दृढ़त्व अंगों की कृतियों द्वारा रक्षण किया। उनकी अभ्यर्थना के वश से जिनचंद्र मुनिवर ने मालाकार की तरह मूलश्रुत रूप उद्यान से श्रेष्ठ वचन कुसुमों का चयन कर अपने मति गुण से दृढ़ गुंथन करके विविध अर्थ-सौरभयुक्त यह आराधना माला रची है। संवेगरंगशाला विसालसावोवमा कयाजेण। रागाइवेरिमयमीय-भव्यहजणरक्तखाणनिमित्तं। -गणधर सार्द्धशतक आचार्य जिनदत्तसूरि ने स्वयं संवेगरंगशाला की प्रशंसा की। उन्होंने लिखा है कि जिन्होंने (जिनचंद्रसूरि) रागादि शत्रुओं से भयभीत होकर भव्यजनों के रक्षणनिमित्त विशाल किले जैसी संवेगरंगशाला की रचना की। नतेपितुसंवेगंपुनर्नणां लुप्तनृत्यमिवकालिना। संवेगरंगशाला जैन विशाला व्यरचि रुचिर॥ -पंचलिंगी विवरण / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /151 )