________________ महाप्रज्ञ आचार्य श्रीजिनचंद्रसूरि 'संवेगरंगशाला' के रचनाकार आचार्य जिनचंद्रसूरि एक विश्रुत व्यक्तित्व एवं उदात्त चिन्तक थे। जैन धर्म के प्रभावापन्न आचार्यों में ये एक हैं। अर्हन्नति के उन्नयन में इनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण रही। जीवन-वृत्त आचार्य जिनचंद्रसूरि का जीवन-वृत्त अभी तक ज्ञात नहीं हो पाया है। प्राप्त शोध-संदर्भो में मात्र इनकी साहित्यिक सेवाओं का उल्लेख किया गया है। युगप्रधानाचार्य गुर्वावली के अनुसार से आचार्य जिनेश्वरसूरि के पट्ट पर आसीन हए। इन्हें सभी विद्वानों ने महागीतार्थ आचार्य के रूप में स्वीकार किया है। इन्हें अष्टादश नाममाला आदि ग्रंथ कण्ठस्थ थे। सर्वशास्त्रों में इनकी पारंगतता थी। (युगप्रधानाचार्य गुर्वावली, पृष्ठ 6) साहित्य आचार्य जिनचंद्रसूरि ने सं. 1125 में संवेगरंगशाला जैसे महान ग्रंथ की रचना की। जिसका श्लोक-परिमाण 18000 है। यह ग्रंथ भव्य जीवों के लिए मोक्ष महल का सोपान है। इन्होंने जावालिपुर/जालौर में श्रावकों की सभा में चीवंदण भावस्तव इत्यादि गाथाओं की व्याख्या करते हुए जो सिद्धान्त-संवाद कहे थे, उनका उन्हीं के शिष्य ने लिखकर 300 श्लोक परिमित दिनचर्या नामक ग्रंथ निबद्ध किया जो श्रावक वर्ग के लिए बहुत उपकारी एवं लाभकारी सिद्ध हुआ। (खरतरगच्छ पट्टावली, पत्र 2) किन्तु यह कृति प्राप्त नहीं हो पायी है। इनके अलावा जिनचंद्रसूरि द्वारा रचित अन्य कृतियाँ भी प्राप्त होती हैं। यथा-पंचपरमेष्ठी नमस्कार फलकुलक, क्षपकशिक्षा प्रकरण, जीवविभक्ति, आराधना पार्श्व स्तोत्र आदि। उनका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और विशद् ग्रंथ संवेगरंगशाला है। इसकी भाषा प्राकृत है। ग्रंथ 10056/10050 गाथाओं में निबद्ध है। इसका रचनाकाल वि. सं. 1125 है। * ग्रंथ अगर 10056/10050 गाथाओं में निबद्ध है तो 18000 श्लोक प्रमाण है ऐसा जो उपर लिखा है वह अप्रमाणिक सिद्ध होता है।-संपादक / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /150 )