________________ स्पष्ट है कि संवेगरंगशाला की रचना व तपागच्छ के उद्भव में 160 वर्ष का सुदीर्घ अन्तराल है। फिर भी प्र. प्रशांतवल्लभविजयजी के द्वारा खरतरगच्छीय जिनचंद्रसूरि को जबरदस्ती तपागच्छीय लिखने का आधार क्या?* घ) खरतरगच्छ की पट्टावली, युगप्रधानाचार्य गुर्वावली आदि ग्रंथों के अनुसार संवेगरंगशाला के कर्ता श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनेश्वरसूरि के पट्टधर बने। इन्हीं जिनचंद्रसूरि को शासनदेवी माता पद्मावती ने खरतरगच्छ के हर चौथे पाट पर आरूढ़ सूरि को जिनचंद्रसूरि नाम रखने को कहा। जिसकी परिपालना लगभग 17वीं शताब्दी तक अनवरत चलती रही। (देखें 'खरतरगच्छ पट्टावली' (संलग्न)) च) तपा. श्रीपद्मसूरीश्वर जी ने संवेगरंगशाला का अनुवाद किया था, उन्होंने निष्पक्षता से आ. जिनचंद्रसूरि को खरतरगच्छीय मान्य किया है। कलिकाल में आप जैसे गीतार्थ आचार्यश्री की तारक उपस्थिति में अप्रमाणिकता से संवेगरंगशाला के रचनाकार खरतरगच्छीय श्री जिनचंद्रसूरि को प्र. प्रशांत वल्लभ विजयजी द्वारा तपागच्छीय लिखने का दुस्साहस कैसे हआ है! पूज्यवर आप जैसे मूर्धन्य शास्त्रवेत्ता ‘पक्षपाता न में' की उक्ति को चरितार्थ करते हुए निष्पक्षता से प्रमाणिक तथ्यों को ध्यान में रखकर आचार्य जिनचंद्रसूरि को खरतरगच्छ के हैं यह इस सत्य प्रमाणित इतिहास पर आपश्री स्वीकृति की मोहर लगाएँगे। जिनाज्ञा आदि साप्ताहिक, मासिक पत्र-पत्रिकाओं में संवेगरंगशाला के कर्ता खरतरगच्छीय आचार्य श्री जिनचंद्रसूरि हैं। ऐसा स्पष्टीकरण प्रकाशित हो जाने से भविष्य में पुनः गलत इतिहास की पुनरावृत्ति नहीं होगी। आपश्री के द्वारा निष्पक्षता एवं सत्यप्रियता से दोनों ही गच्छों में सौमनस्यता की प्रतिष्ठा होगी। सभी चारित्रात्माओं को यथोचित् वन्दन/अनुवंदन। यथायोग्य कार्य विदित करें। अन्यथा अनुचित के लिए क्षमायाचना / प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा। गुरुचरणरज् जिनपीयूषसागरसूरिः * 'तपागच्छ' यह चान्द्रकुल का नामांतरण ही है, ‘पाप पडल परिहरो' में इस अपेक्षा से चान्द्रकुल में हुए जिनचंद्रसूरि को तपागच्छीय लिखा है, ऐसा समझना चाहिए।-संपादक इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /149