________________ परिशिष्ट-8 जिनपीयूषसागरसूरिजी के पत्र एवं उनकी समीक्षा पत्र नं.1 पुज्यपाद गीतार्थ गच्छाधिपति आचार्यदेवेश श्री विजय जयघोष सूरीश्वरजी म.सा. आदि ठाणा यथायोग्य वंदन-/अनुवंदन स्वीकारें आपश्री का आरोग्य रत्नत्रय की आराधना व शासन प्रभावना के अनुकूल होगा। देव-गुरु कृपा एवं आपश्री के असीम अनुग्रह से अत्र सर्व कुशल मंगल वर्त्त रहा है। आपश्री के प्रभावी सान्निध्य में प्रवचन, वाचना, स्वाध्याय, जप, तप आदि अनुष्ठानों का अद्भूत आध्यात्मिक महायज्ञ चल रहा होगा। अत्र वर्षावास में आराधना साधना निरंतर प्रवर्तमान है। विषय- संवेगरंग शाला के कर्ता अर्हन्नीति के उन्नायक खरतरगच्छीय आचार्यश्री जिनचंद्रसूरि को प्र.प्रशांत वल्लभ विजयजी के द्वारा पाप पडल परिहरों में तपागच्छीय उल्लेखित करना। क) पूज्यश्री! वर्षावास के पूर्व शेषकाल में विहार के दौरान ब्यावर (राज.) श्री शांतिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर में स्थित ज्ञान भण्डार में संवेगरंगशाला ग्रंथ से उदृत पाप पडल परिहरों पुस्तक पढ़ने को मिला। यह पुस्तक आपश्री की प्रेरणा/आशीर्वाद से प्र. प्रशांत वल्लभ विजय जी ने संकलन किया है। इस पुस्तक में श्री संवेगरंगशाला ग्रंथ के परिचय में रचनाकार खरतरगच्छीय जिनचंद्रसरि को तपागच्छीय सम्बोधन से सम्बोधित करने का अनधिकृत कार्य किया गया है। ख) सं. 1080 में पाटण में दुर्लभराजा के समक्ष खरतरविरुदधारक, चैत्यवासी परंपरा उन्मूलक आचार्यदेवेश श्री जिनेश्वरसूरि के शिष्य बने संवेगरंगशाला के रचनाकार श्री जिनचंद्रसूरि। आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि ने श्री जिनचंद्रसूरि को एवं नवांगी टीकाकार स्थंभनपार्श्वनाथ प्रगटकर्ता श्री अभयदेवसूरि को एक ही दिन सूरिपद प्रदान किया था। (देखें श्री जिनचंद्रसूरि जीवनवृत्तांत (संलग्न)) ग) 18000 श्लोक प्रमाण संवेगरंगशाला की रचना प्राकृत भाषा में वि. सं. 1125 में की है। इस सत्य को प्र. प्रशांतवल्लभविजयजी ने भी मान्य किया है। खरतरगच्छ की उद्भव काल वि. सं. 1285 श्री जगच्चन्द्रसूरिजी से हुआ है। इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /148