________________ साथ उसका प्रयोग नहीं हआ है। लेख नं. 40 में खरतरगच्छ का उल्लेख मिलता है, परंतु उसमें 1354 (?) इस प्रकार (?) प्रश्न चिन्ह लिखा होने से उसे यहां पर नहीं बताया है। 6. लेख नं. 6 में 'खरतरगच्छे श्री जिनचंद्रसूरिभिः' इस प्रकार का उल्लेख है और वह लेख सं. 1234 का बताया गया है, जो अनाभोग से गलत छपा हआ लगता है। क्योंकि इस लेख का मूल स्रोत पू. जै. भाग-2 लेखांक 1289 बताया है, उस मूल लेख में सं. 1534 लिखा है। उसका प्रमाण इन सभी लेखों के अंत में पृ. 138-139 में दिया है। तथा 7. लेख नं. 46 जो सं. 1366 का है, उसमें जिनेश्वरसूरिजी के लिए बहुत लंबा विशेषण दिया है, परंतु उन्हें खरतर बिरुद से विभूषित नहीं किया है। इससे भी स्पष्ट सिद्ध होता है कि जिनेश्वरसूरिजी को खरतर बिरुद मिला था, ऐसी मान्यता उस समय तक नहीं थी। सारः 1. 14वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक जिनदत्तसूरिजी की शिष्य परंपरा भी अपना परिचय ‘खरतरगच्छ' इस शब्द से नहीं देती थी। 2. अभयदेवसूरिजी की शिष्य परंपरा एवं रूद्रपल्लीय गच्छ ने स्वयं को खरतरगच्छ से नहीं जोड़ा है, अतः स्पष्ट होता है कि 'खरतरगच्छ' जिनदत्तसूरिजी की शिष्य परंपरा का ही सूचक है। यानि कि 'जिनेश्वरसूरिजी को खरतर बिरुद मिला' अतः उनकी शिष्य परंपरा 'खरतरगच्छ' कहलायी ऐसा नहीं है। 2. चित्रकूटीय पार्श्वचैत्य-प्रशस्तिः (कमलदलगर्भम्) 1. (निर्वाणार्थी विधत्ते) वरद सुरुचिरावस्थितस्थानगामिन्सो (पी)2. (ह स्तवं ते)निहतवृजिन हे मानवेन्द्रादिनम्य(।)संसारक्लेशदाह (स्त्व)3. (यि) च विनयिनां नश्यति श्रावकानां देव ध्यायामि चित्ते तदहमृषि4. (वर)त्वां सदा वच्मि वाचा(।।)-1।। नन्दन्ति प्रोल्लसन्तः सततमपि हठ (क्षि) 5. (प्तचि) तोत्थमल्लं प्रेक्ष्य त्वां पावनश्रीभवनशमितसंमोहरोहत्कुत6. (काः।) भूत्यै भक्त्याप्तपार्था समसमुदितयोनिभ्रमे मोहवार्की 7. (स्वा) मिन्पोतस्त्वमुद्यत्कुनयजलयुजि स्याः सदा विश्ववं (बं)धो ( / / )2 / / 2. पुरातत्त्व संग्रहालय एवं म्युजियम, चित्तौड़ इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /120