________________ परिशिष्ट-5 खरतरगच्छ प्रतिष्ठा लेख संग्रह... 1) महोपाध्याय विनयसागरजी अब यहाँ पर महोपाध्याय विनयसागरजी संपादित ‘खरतरगच्छ प्रतिष्ठा लेख संग्रह' में दिये हए 14वीं शताब्दी तक के लेख दिये जाते हैं। इसमें प्रथम लेख जिनवल्लभगणिजी की ‘अष्टसप्ततिका' है, जिसके बारे में पहले पृ.54 पर उल्लेख किया जा चुका है, अतः यहाँ लेख नं. 2 से प्रारंभ किया जा रहा है। विशेषता1. लेख नं. 5, 8 और 9 में अभयदेवसूरि संतानीय इस प्रकार का उल्लेख मिलता है, जो अभयदेवसूरिजी की मूल - शिष्य परंपरा को सूचित करता है। वहाँ पर ‘खरतर' शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है। अतः यह सिद्ध होता है कि अभयदेवसूरिजी की मूल शिष्य परंपरा खरतरगच्छ से भिन्न थी। और साथ में यह भी सिद्ध होता है कि खरतरगच्छ अभयेदवसूरिजी की मूल शिष्य परंपरा रूप नहीं है। 2. लेख नं. 10, 11, 21, 22 और 84 में रुद्रपल्लीय इस प्रकार का उल्लेख मिलता है। वहाँ पर भी 'खरतर' शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। 3. सं. 1308 वाले लेख नं. 18, 19 में 'चन्द्रगच्छीय खरतर' एवं सं. 1379 वाले लेख नं. 50 में 'खरतर सा. जाल्हण' इस प्रकार का उल्लेख मिलते हैं, जो खरतर शब्द के प्रारंभिक प्रयोग के आकार को सूचित करती है। विशेष बात यह है कि यहाँ पर 'खरतर' इस विशेषण का प्रयोग श्रावकों के लिए ही हुआ है। 4. लेख नं. 35 में विधिचैत्य गोष्ठिकेन तथा लेख नं. 55 और 70 में विधिसंघसहिता तथा कई बार 'विधिचैत्य' इत्यादि उल्लेख मिलते हैं। जो सूचित करता है कि 14 वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक विधिपक्ष या विधिसंघ के रूप में खरतरगच्छ की विशेष प्रसिद्धि थी। 5. आचार्य के साथ खरतर शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम सं. 1360 का मिलता है (लेख नं. 44) उसके पहले सं. 1308 वाले लेख नं. 17 में 'खरतरगच्छ' शब्द का प्रयोग हुआ है, लेकिन किसी आचार्य आदि के इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /119