________________ 'सं. 1399 भ. श्रीजिनचन्द्रसूरि शिष्यैः श्री जिनकुशलसूरिभिः श्रीपार्श्वनाथ बिंबं प्रतिष्ठितं कारितंच सा. केशवपुत्र रत्न सा. जेहदु सु श्राविकेन पुण्यार्थं।' बाबू पूर्ण खण्ड दूसरा लेखांक 1545 वह आचार्य-जिनदत्त सूरि के छठे पट्टधर हुए हैं। पूर्वोक्त शिलालेखों से पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि जिनकुशलसूरि के पूर्व किन्हीं आचार्यों के नाम के साथ खरतर शब्द का प्रयोग नहीं हआ पर जिनकुशल सूरि के कई शिलालेखों में खरतर शब्द नहीं है और कई लेखों में खरतरगच्छ का प्रयोग हआ है, इससे यह स्पष्ट पाया जाता है कि खरतर शब्द गच्छ के रूप में जिनकुशलसूरि के समय अर्थात् विक्रम की चौदहवीं शताब्दी ही में परिणत हुआ है। इसका अभिप्राय यह है कि खरतर शब्द न तो राजाओं का दिया हुआ विरुद है और न कोई गच्छ का नाम है। यदि वि. सं. 1080 में जिनेश्वरसूरि को शास्त्रार्थ की विजय में राजादुर्लभ ने खरतरबिरुद दिया होता तो करीब 300 वर्षों तक यह महत्त्वपूर्ण बिरुद गुप्त नहीं रहता। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में खरतर गच्छाचार्यों की यह मान्यता थी कि खरतरगच्छ के आदि पुरुष जिनदत्तसूरि ही थे। और यही उन्होंने शिलालेखों में लिखा है। यहाँ एक शिलालेख इस बारे में नीचे उद्धृत करते हैं। ___ 'सम्वत् 1536 वर्षे फागुणसुदि 5 भौमवासरे श्री उपकेशवंशे छाजहड़गोत्रे मंत्रि फलधराऽन्वये मं. जूठल पुत्र मकालू भा. कादे पु. नयणा भा. नामल दे ततोपुत्र म. सीहा भार्यया चोपड़ा सा. सवा पुत्र स. जिनदत्त भा. लखाई पुत्र्या स्नाविका अपुरव नाम्न्या पुत्र समधर समरा संदू संही तया स्वपुण्यार्थ श्रीआदिदेव प्रथम पुत्ररत्न प्रथम चक्रवर्ति श्री भरतेश्वरस्य कायोत्सर्ग स्थितस्य प्रतिमाकारिता प्रतिष्ठिता खरतरगच्छमण्डन श्री जिनदत्तसूरि, श्री जिनचंद्रसूरि, श्री जिनकुशल सूरि संतानीय श्री जिनचन्द्रसूरि पं. जिनेश्वरसूरि शाखायां श्रीजिनशेखरसूरि पट्टे श्रीजिनधर्मसूरि पट्टाऽलंकार श्रीपूज्य श्री जिनचन्द्रसूरिभिः' बा.पू. सं. लेखांक 2401 इस लेख में पाया जाता है कि सोलहवीं शताब्दी में खरतर गच्छ के आदि पुरुष जिनेश्वरसूरि नहीं पर जिनदत्तसूरि ही माने जाते थे। (-खरतरमतोत्पत्ति भाग-1, पृ. 16-20) / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /118 )