________________ साधना में लीन बने। सं. 1135/1139 में आचार्यश्री ने पाटण में (मतांतर से कपडवंज में) अनशन ग्रहण किया और समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुए। / आचार्यश्री ने अंग साहित्य के अलावा अन्य ग्रंथों की टीकाओं की रचना भी की थी तथा स्वतन्त्र रूप से ग्रंथों की रचना भी की थी। उन सब की सूचि इस प्रकार है 1) ठाणांगसुत्त-टीका - ग्रंथाग्र : 14250 2) समवायांग-टीका - ग्रंथाग्र : 3575 3) विवाहपण्णत्तिसुत्त-टीका - ग्रंथाग्र : 18616 4) नायाधम्मकहाओ-टीका - ग्रंथाग्र : 4252 (3800) 5) उवासगदसांग-टीका - ग्रंथाग्र : 900 6) अंतगडदसांग-टीका - ग्रंथाग्र : 1300 7) अणुत्तरोववाइदसांग-टीका - ग्रंथाग्रः 100 8) पण्हावागरणअंग - टीका ग्रंथान : 4600 9) विवागसुय-टीका - ग्रंथाग्र : 900 10) उववाइसुत्तं-टीका - ग्रंथाग्र : 3125 11) पन्नवणासुत्तं, तइयपयसंग्गहणी, गाथा : 133 12) हारिभद्रीय पंचाशक - टीका 13) छट्ठाणपगरण (जिणेसरीय) भाष्य 14) पंचणिग्गंथी पगरणं 15) आराहणाकुलयं 16) जयतिहुअणथयं 17) आ. जिनचंद्रकृत नवतत्त्वप्रकरण भाष्यवृत्ति 18) सत्तरी - ग्रंथभाष्य 19) महावीरथयं (जइज्जासमणो) (जैनस्तोत्रसंदोह, पृ. 197) 20) शतारिप्रकरणवृत्ति-गाथाबद्ध 21) निगोदषट्त्रिंशिका 22) पुद्गलषट्त्रिंशिका 23) साहम्मियवच्छलकुलयं 24) वंदणयभासं इस प्रकार आ. अभयदेवसूरिजी ने जिनशासन की अद्भूत सेवा और प्रभावना की थी। / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /012 )