________________ "नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी" का संक्षिप्त परिचय __ मालवदेश में धारा नगरी थी। वहाँ पर भोज राजा का राज्य चल रहा था। महीधर नाम का न्याय संपन्न, धनवान व्यापारी निवास करता था। धनदेवी नाम की उसकी पत्नी थी। सं. 1072 में शुभ नक्षत्रों के योग में शुभ लक्षणों से सुशोभित तेजस्वी पुत्र का जन्म हुआ। सौम्य आकृति से सबको अभय देनेवाले उस पुत्र का नाम ‘अभयकुमार' रखा गया। ___ एक बार विहार करते हुए आ. श्री जिनेश्वरसूरिजी धारा नगरी में पधारे, उनका वैराग्यमय उपदेश सुनकर वैराग्य वासित हुए बाल-अभयकुमार ने सं. 1077 | 1080 में छोटी उम्र में ही माता-पिता की अनुमति लेकर दीक्षा ली। गुरुकुलवास में ग्रहण-आसेवन शिक्षा पूर्वक आगम-शास्त्रों का अध्ययन किया। ज्ञान और क्रिया में प्रवीण बने हुए जानकर गुरुदेव ने सं. 1088 में उन्हें आचार्य पदवी दी और वे 'अभयदेवसूरि' के नाम से विख्यात हुए। ___ कालक्रम से विच्छिन्न हुए अंग शास्त्रों के व्याख्या साहित्य के पुनरुद्धार हेतु शासनदेवी ने उन्हें प्रार्थना की। आचार्य श्री ने भी पूर्ण संविग्नता, सावधानी, भवभीरूता, पूर्वापर शास्त्रों के अनुसंधान पूर्वक टीकाओं की रचना की। तथा क्षति न रह जावे उस हेतु तत्कालीन समर्थ विद्वान और शुद्ध प्ररूपक ऐसे चैत्यवासी संघ के प्रमुख द्रोणाचार्यजी और उनके विद्वद् शिष्यमंडल के पास उनका संशोधन करवाया। इतना ही नहीं उनके इस कार्य में तत्कालीन संविग्न विहारी अजितसिंहसूरिजी के विद्या और क्रियाप्रधान शिष्य यशोदेवगणिजी का अदभूत योगदान रहा था। इन टीकाओं का रचना काल प्रायः सं. 1120 से 1128 के बीच का था। - आ. अभयदेवसूरिजी ने नौ अंगों पर टीकाओं की रचना की थी, अतः वे 'नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी' के नाम से प्रसिद्ध हुए। दीर्घकाल से चल रहे आयंबिल तप, रात्रि जागरण और अतिश्रम के कारण कर्मवशात् उन्हें कोढ़ रोग हआ और अज्ञानी लोग उन पर उत्सूत्र भाषण का दोषारोपण करने लगे। तब आचार्यश्री ने शासनदेव धरणेन्द्र का ध्यान किया। दैवी सूचना अनुसार 'जयतियण' स्तोत्र की रचना द्वारा स्तंभन पार्श्वनाथ भगवान को प्रगट किये। उनके स्नात्र-जल से आचार्यश्री का कोढ़-रोग शांत हआ और जिनशासन की महती प्रभावना हुई। अभयदेवसूरिजी ने वर्धमानसूरिजी को अपनी पाट-परंपरा सौंपी और आत्म / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ/011 )