________________ अतः ‘खरतरगच्छ का उद्भव' पुस्तिका के पृ. 17 पर दिया गया ‘प्राप्त खरतर बिरुद भगवन्तः श्री जिनेश्वरसूरयः ऐसा बृहवृत्ति का पाठ पृ. 100 से 103 पर दिये गये प्रमाणों से बाधित सिद्ध होता है। 16. आ. श्री जिनपतिसूरिजी ने भी सङ्घपट्टक की बृहवृत्ति में खरतर बिरुद की बात नहीं लिखी है। बल्कि टीका के अन्त में 'सूरिःश्रीजिनवल्लभोऽजनि बुधश्चान्द्रे कुले।' इस प्रकार 'चांद्रकुल' का ही उल्लेख किया है। उसी तरह 'पंचलिंगी प्रकरण' की टीका की प्रशस्ति में भी चान्द्रकुल ही लिखा है। देखियेन रजनिकृतसाफल्यं सदा न नक्षत्र बुधपरिगृहीतम्। अस्ति कुलं चान्द्रमहो न तमोहत्या येन प्रथितम्॥1॥ तत्र न वियति प्रसितो बुधो नवीनो न सूर्यसहचरितः। अनिशापतितनयः श्रीजिनेश्वरः सूरिरजनिष्ट।।2।। टीका की शुरुआत में उन्होंने बाद के निर्देशपूर्वक जिनेश्वरसूरिजी को अनेक विशेषणों से प्रशंसा की है, परंतु ‘खरतर' बिरुद प्राप्ति का सूचन तक नहीं किया है। अतः स्पष्ट होता है कि जिनपतिसूरिजी के समय तक 'जिनेश्वरसूरिजी को खरतर बिरुद मिला था' ऐसी मान्यता नहीं थी। देखिये ‘पंञ्चलिङ्गी प्रकरण' की टीका की शुरुआत का पाठः 'इह हि गुर्जरवसुंधराधिपश्रीदुर्लभराजसदसि महावादिचैत्यवासि-कल्पितजिनभवनवासपरासनासादिताऽसाधारणविसृत्वरकीर्तिकौमुदीधौतविश्वम्भराऽऽभोगेन, सकलस्वपरसमयपारावारपारदृश्वना, प्रामाणिकपरिषच्छिखामणिना श्रीजिनेश्वरसूरिणा...। सङ्घपट्टक की टीका की शुरुआत में भी इसी प्रकार से जिनपतिसूरिजी ने जिनेश्वरसूरिजी की अनेक विशेषणों से प्रशंसा की है, परंतु खरतर बिरुद की प्राप्ति का उल्लेख नहीं किया है। 17. वि. सं. 1139 में गुणचंद्रगणिजी (देवभद्रसूरिजी) रचित 'महावीर चरियं' की प्रशस्ति“साहाइ तस्स चंदे कुलम्मि निप्पडिमपसमकुलभवणं। / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /104 )