________________ आसि सिरिवद्धमाणो मुणिनाहो संजमनिहि व्व।।48॥ मुणिवइणो तस्स हरट्टहाससियजसपसाहियासस्स। आसि दुवे वरसीसा जयपयडा सूरससिणो व्व।।50॥ भवजलहिवीइसंभंतभवियसंताणतारणसमत्थो। बोहित्थो व्व महत्थो सिरिसूरिजिणेसरो पढमो।।51॥ गरुसाराओ धवलाउ निम्मला (सुविहिया) साहुसंतई जम्हा, हिमवंताओ गंगुव्व निग्गया सयलजणपुजा।।52॥ अन्नो य पुन्निमायंदसुंदरो बुद्धिसागरो सूरी। निम्मवियपवरवागरण-छंदसत्थो पसत्थमई।।53॥ एगंतवायविलसिरपरवाइकुरंगभंगसीहाणं। तेसिं सीसो जिणचंदसूरिनामो समुप्पन्नो।।54॥ इसमें भी चान्द्रकुल का ही उल्लेख किया है। परंतु ‘खरतर' बिरुद की प्राप्ति के प्राचीन प्रमाण के रूप में इस प्रशस्ति को पेश किया जाता है, जिसके श्लोक नं. 52 में ‘खरयरी साहुसंतई' अथवा 'सुविहिया खरय साहुसंतई' ऐसा पाठ दिया जाता है। वह प्रक्षिप्त पाठ है, ऐसा नारदपुरी (नारलाई) से प्राप्त हस्तप्रति से पूर्वकाल में सिद्ध किया जा चुका है। (विशेष के लिये देखें-पृ. 22-23) 18. देवभद्रसूरिजी द्वारा सं. 1158 में रचित 'कथारत्नकोश' की प्रशस्ति के श्लोकः"चंदकुले गुणगणवद्धमाणसिहिवद्धमाणसूरिस्स। सीसा जिणेसरो बुद्धिसागरो सूरिणो जाया।।1।। ताण जिणचंदसूरि सीसो सिरिअभयदेवसूरी वि। रवि-ससहर व्व पयडा अहेसि सियगुणमऊहेहिं।।2।।" 19. उन्हीं के द्वारा सं. 1168 में रचित 'पासनाहचरियं' की प्रशस्ति के श्लोकः “तिक्खम्मि वहंते तस्स भयवओ तियसवंदणिज्जम्मि। चंदकुलम्मि पसिद्धो विउलाए वइरसाहाए। सिरिवद्धमाणसूरी अहेसि तव-नाण-चरणरयणनिही। / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /105 )