________________ * 131 10 पूर्ण होने पर विधि पूर्वक बड़े ठाठ से महोत्सव पूर्वक तप का उद्यापन करके, क्षेत्रों का पोषण करके कालधर्म को प्राप्त हो, अच्युत इन्द्र बना और अशोकत्री का जीव सामानिक देव हुआ। बाहरवें देवलोक में देवी सुख भोगकर, श्री धर्मघोष सूरीश्वरजी ने कहा, वह अच्युत इन्द्र वहां से च्यव कर कुशस्थल में श्रीचन्द्र के रुप में जन्मा, तथा सामानिक देव चन्द्रकला पद्मिनी रुप में जन्मा जो तुमारी पट्टराणी हुई है / मित्र नरदेवघृणा करने से. बहुत भवों में भ्रमण कर, सिंहपुर में धरण ब्राह्मण हुा / श्री सिद्धावल तीर्थ पर जाकर अनशन कर इस भव में गुणचन्द्र मंत्री पुत्र, जो तेरा प्राण प्रिय मित्र है / हरी और घावमाता इस भव में लक्ष्मीदत्त और लक्ष्मीवती बने, पूर्ण के स्नेह वश जिन्होंने तेरा पुत्रवत् पालन पोषण किया, पाड़ोसिने राजकुमारियें बन कर तुम्हारी प्रियाए' बनीं / कामपताका जो सुलस के भव में थी वह भील राजा की मोहनी कन्या हुई, इस प्रकार सारा चरित्र कह सुनाया। उस को सुनकर श्रीचन्द्र, चन्द्रकला, गुणचन्द्र आदि को जातिस्मरण ज्ञान होने से अपना पूर्णभव, उसी तरह साक्षात देखा / उन्होंने प्राचार्य देव की बहुत ही स्तवना की / उसी समय सुग्रीव की पुत्री रत्नवती को जाति स्मरण ज्ञान होने से पूर्व भव के स्नेह के कारण उसने श्रीचन्द्र को वरा / श्रीचन्द्र ने रत्नवेग आदि विद्याधरों से अज्ञानता से प्रजानले रत्नचूड़ के वध की हकीकत कहकर उनसे क्षमा याचना की। सुग्रीव और मणीचूड़ ने भी परस्पर क्षमा याचना की। Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S.