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________________ श्रीशान्तिनाथ चरित्र। क्रमशः इस नगरके निवासियोंको खाने लगो। कुछ ही दिनों में उसने इस नगरके सब मनुष्योंका सफाया कर दिया। इसके बाद वह बाहरवाले नगरके लागोंको चट करने लगा। इसलिये वे लोग जहाज परः चढ़-चढ़कर भागने लगे। इस तरह उस दुष्ट राक्षसने दोनों नगर उजाड़ डाले। हे साहसिक! उसने एक मात्र मुझको ही विवाह कर. नेको इच्छासे छोड़ रखा है। उसने मुझसे आजसे सात दिन पहले कहा था,-"भद्रे ! मैं बड़ाही भयङ्कर राक्षम हूँ। मैं मनुष्य के मांसके. लोभसे ही यहाँ आया था और तुम देखही रही हो, कि मैंने समस्त पुरजनों का नाश कर ड ला है। सिर्फ एकही कारण ऐसा है, जिससे मैंने तुम्हें जोता छोड़ दिया है." उसकी यह व त सुनकर मैंने पूछा, "वह कारण क्या है ?" वह बोला,-"आज के सातवें दिन बड़ाही अच्छा शुभग्रह युक्त लग्न है। उसी दिन मैं तुम्हारे साथ विवाह कर तुम्हें अपनी पत्नी बनाऊंगा।" हे भद्र ! आजही वह सातवाँ दिन है और उप राक्षसके भाने का समय भी हो गया है। जब तक वह यहाँ आये तब तक तुम यहाँसे टल जावो।" यह सुन, धनदने कहा, "हे मुग्धे! तुम तनिक भी भय मत करो। वह दुष्ट मेरे हाथों मारा जायेगा।" बालिका बोली"यदि ऐसीबात है, तो लो, मैं तुम्हें उसके मारनेका ठीक समय बतलाये देती हूँ। जिस समय वह विद्याका पूजन करने बैठे, उसी समय तुम उसे मार डालो। उस समय वह न बोलचाल करता है, न उठकर खड़ा होता है / उसी अवसरमें तुम मेरे पिताके इस खड्का उपयोग करना।" : ..घे दोनों इस प्रकार बातें करही रहे थे, कि वह राक्षस हाथमें एक मनुष्यकी लाश लिये हुएआया। वहाँ धनदको बैठा देखकर उसने हँस कर कहा,-'अहा! आज तो.बड़े अचरजकी बात देखने में आ रही है। मेरा भक्ष्य आपसे आप मेरे घर आ पहुँचा है।" इस प्रकार अवज्ञा पूर्ण वचन कहकर उसने लाशको नीचे रख दिया और विद्याका पूजन करने लगा। इसी समय धनदने खड्ग खींचकर कहा,-"ठहर जा, पापी! आज में औरा सफामा ही किये देता हूँ।" उसकी यह बात सुनकर भी वह राक्षस
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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