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________________ . द्वितीय प्रस्ताव / . सातवें खण्ड पर पहुंचा, तब वहाँ एक बालिकाको देख, उसे बड़ा वि-: स्मय हुआ। इतने में वह बालिका उससे पूछ बैठी,-“हे सत्पुरुष! तुम यहाँ कहाँसे आ रहे हो ? हे भद्र ! सुनो-यहाँ तुम्हारे प्राणों पर संकट आनेकी सम्भावना है, इसलिये यदि तुम जीना चाहते हो, तो झटपट यहाँसे कहीं अन्यत्र चले जाओ।” यह सुन, धनदने कहा, "भद्रे! तुम खेद न करो। मुझे अपना ब्योरेवार हाल कह सुनाओ। यह नगर सूनसान क्यों है और तुम कौन हो, यह बतलाओ।" .. :: .." - यह सुन, धनदके रूप और धैर्यको देख, आश्चर्यमें पड़ी हुई वह बालिका बोली,-"हे सुन्दर! यदि तुम्हारी यह जाननेकी बड़ीही अभिलाषा है, तो सुनो “इसी भरतक्षेत्रमें श्रीतिलक नामका एक नगर है। उसमें महेन्द्रराज नामक राजा राज्य करते थे। वही मेरे पिता थे। एक बार उनके राज्यके समीपवर्ती शत्रुराजाओंने उनपर चढ़ाई की और उन्हें हरा डाला। इसी समय एक वैतालने आकर स्नेहके साथ राजासे कहा, "हे राजा! तुम मेरे पूर्व जन्मके मित्र हो, इसलिये तुम मेरे योग्य कोई काम बतलाओ। कहो, मैं तुम्हारी कौनसी भलाई करूं ? यह सुन राजाने कहा,--“हे मित्र! . सुम मेरी सहायता करो, जिससे मैं अपने शत्रुओंको हरा सकूँ।" यह सुन बैतालने कहा,---"मैं तुम्हारे शत्रुओंको मार गिराने में असमर्थ हूँ क्योंकि . मुझसे भी अधिक बलबान दैतालगण उनके मददगार हैं; पर हाँ, मैं और तरहसे तुम्हारी मदद कर सकता हूँ।" यह कह, वह वैताल उस नगर; के सब लोंगोंके साथ मेरे पिता और उनके परिवारको यहाँ ले आया। उसीने इस पाताल नगरकी रचना की। उसने एक कुएँ के अन्दरसे इस नगरमें आने-जानेको मार्ग बनाया। उस कुएं की रक्षाके लिये उसने वाहरके हिस्से में एक दूसरा नगर भी वसाया। इसके बाद जहाजों में भर-भरकर यहाँ सामान पहुँचने लगे। इस तरह सब लोग सुखसे रहने लगे। कुछ दिन इसी प्रकार बीत जानेके बाद, एक राक्षस कुपकी राहसे यहां आ पहुँचा। वह दुष्ट माँसका लोभी था। वह P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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