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________________ 48 श्रीशान्तिनाथ चरित्र। मेरे इस सोच-विचारका ही क्या नतीजा है ? दैवकी चिन्ता ही वलवान् है।" इसी प्रकार सोचता-विचारता हुआ वह-जंगलमें क्षुधा तृष्णासे व्याकुल होकर फल और जलकी तलाशमें घूमने लगा। घूमते-घूमते उसने एक स्थानपर एक टूटे-फूटे घरोंवाला सून-सान नगर देखा। यह देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसी उजड़े हुए नगरमें भ्रमण करते हुए उसने एक कुआँ देखा। बड़ी-बड़ी मुश्किलोंसे उस कुएँ से जल निकालकर उसने अपनी प्यास बुझायो तथा केलेके फल आदि खाकर अपनी प्राणरक्षा की। इसके बाद वह भयके मारे उस नगरसे दूर जा रहा / इतने में सूर्य अस्त हो गया / . अन्धकारसे सारा संसार ढक गया। उस समय धनदने एक पर्वतके समीप जा वहीं आग सुलगाकर ठंढ दूर कीया और किसी तरह रात बिता दी। सवेरा होतेही उसने देखा, कि उसने रातको जहाँ आग सुलगायी थी, वहाँकी, भूमि सुवर्णमयी हो गयी है। यह देखते ही उसने अपने मनमें विचार किया, - “मुझे तो ऐसा मालूम पड़ता है, कि यह स्थान अवश्यही सुवर्णद्वीप है / कारण, अग्निका संयोग होतेही यहाँकी भूमि सुवर्णमयी हो गयी है।" ऐसा विचार मनमें उत्पन्न होतेही उसने हर्षित होकर विचार किया,-"मैं यहीं रहकर सोना निकालू, तो ठीक हो।" इसके अनन्तर उसने पर्वतकी मिट्टी काट-काटकर अपने नामकी ईटें बनायीं और उन्हें आगकी भट्टीमें पकाया। वे सब ईंटें सोनेकी हो गयीं। एक दिन घूमते घामते उसने पर्वतके निकुञ्ज में रत्नोंका ढेर पड़ा देखा। वह उन रत्नोंको अपने सोनेके ढेरके पास ले आया। धीरे-धीरे उसके पास बहुतसी सोनेकी ईंटों और रत्नोंका समूह हो गया। केले. आदि फल खाकर ही वह जीवन निर्वाह करता चला जाता था। - एक समयकी बात है, कि सुदत्त नामका एक व्यापारी जहाज़में बैठकर वहाँ आया। उसके जहाजमें पहलेसे लेकर रखा हुआ जल और ईंधन चुक गया था, इसलिये उसने अपने आदमियोंको जल तथा ईंधन लेनेके लिये उसी द्वीपकी ओर भेजा। उन आदमियोंने वहाँ धनदको GanAaradhakilite
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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