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________________ 345 ...wwwwwwwmarwarimaa - ~ ~ ~ षष्ठ प्रस्ताव। . उन्हें मैं क्या दोष दूँ ? सब मेरे कर्मों का दोष है।" ऐसा विचार कर वह मन-ही-मन झींकने लगा। * एक बार उसने अपने मनमें सोचा,-"मेरा जीना व्यर्थ है, अब मेरा मर जाना ही अच्छा है।" ऐसा विचार कर, अँधियाले पाखकी चौदसके दिन आधी रातके समय, सुलस स्मशान-भूमिमें जाकर उच्चस्वरसे कहने लगा,-- “हे भूत-वैताल और राक्षसो ! तुम सब सावधान होकर मेरो एक बात सुनो। मैं महामास वेचता हूँ, जिसे इच्छा हो, आकर ले जाये / " उसकी यह बात सुन. भूत, प्रेत और वैताल आदि किलकिल-शब्द करते, तत्काल हाथमें शस्त्र लिये, हर्षसे नाचतेकूदते हुए वहाँ महाभुषखड़ोंकी भांति आ पहुंचे और बोले,-"हे पुरुष! यदि तुम वैराग्य प्राप्त कर, महामांस दे रहे हो, तो यहीं भूमिपर पड़ जाओ। हम तुम्हारा माँस ले लेंगे।" यह सुन, सुलस निडर हो कर ज़मीनपर पड़ गया। इसके बाद ज्योंही वे भूत, वैताल आदि उसका मांस ग्रहण करनेके लिये तैयार हुए, त्योंही जिनशेखर देव, सुलसकी वाह अवस्था देख, जल्दी-जल्दी वहाँ आ पहुँचा / उसे देखते ही सब भूत त भाग गये / तब उस देवने कहा,- "हे सुलस श्रावक ! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। जिनशासनमें निपुण होकर भी तुमने ऐसा विरुद्ध कम क्यों करना चाहा था ? क्या तुम मुझे पहचानते हो ? मैं तुम्हारा मत्र जिनशेखर हूँ / तुमने मुझे कुएं में निर्यामणा करायी थी। तुम्हारी उसी आराधनाके प्रभावसे मैं सहस्त्रार नामक आठवें देवलोकमें जाकर इन्द्रकी समानताका देवता हो गया है। इसलिये तुम मेरे गुरु हो / " सुन, सुलस भी जिनशेखरको देव हुआ जान, उसे देखकर तत्काल ना हुआ और बोला,- "हे धर्मबन्धु ! मैं भी तुम्हें. प्रणाम करता. मैंने देह कह, उसने कुशल-मङ्गल पूछा ! इसके बाद देवने कहा,किया साहारा कौनसा मनचीता काम कर दूँ ? वह बतलाओ / तब "मुझे तुम्हारे दर्शन हुए, इससे मैं बड़ा सुखी हुआ; तो भी मैं तसे यह पैसा चाहता हूँ, कि अभी मेरे गाढ़े अन्तराय " Jun Gun Aaradhak Trust P.P.AC. Gunratnasuri M.S. 41
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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