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________________ श्रीशान्तिनाथ चरित्र। उस राज-कन्याको अत्यन्त रूपवती देख, इन्दुषेण और बिन्दुषेण नामक दोनों राजकुमार उससे व्याह करनेकी इच्छासे देवरमण नामक उद्यानमें जा ; बस्तर पहन कर, परस्पर युद्ध करने लगे। बहुतोंने उन्हें रोका-थाका, पर वे युद्धसे पीछे न हटे। उस समय अल्प कषायवाले, निर्मल मनवाले, जिनेश्वरकी दृढभक्तिवाले तथा प्रिय वचन बोलनेवाले श्रीषेण राजा जब किसी तरह उन परस्पर शत्रुकी भाँति युद्ध करनेवाले राजकुमारोंको युद्धसे रोकने में समर्थ नहीं हुए, तब उन्होंने मन-ही-मन विचार किया,-"यह देखो, विषयकी लम्टपता, कर्मकी विचित्रता और मोहकी कर्कशता कैसी आश्चर्यजनक होती है ! मेरे इतने बड़े बुद्धिमान् पुत्र भी किस प्रकार एक स्त्रीके लिये आपसमें युद्ध कर रहे हैं ! इनकी यह दुष्टता देख, मुझे तो ऐसी लज्जा हो रही है, कि सभासदोंके सामने मुँह दिखानेका भी जी नहीं चाहता। मैं कैसे उन्हें अपना मुँह दिखाऊँगा ? इसलिये अब तो मेरा मर जाना ही ठीक है। कहा भी है, कि प्राण दे देना अच्छा; पर मान गँवाना अच्छा नहीं। क्योंकि मृत्युसे तो क्षण भरका दुःख होता है; परन्तु मान-भंग होनेसे तो हर घड़ी दुःख होता रहता है / " ऐसा विचार मनमें उत्पन्न होते ही राजाने अपनी रानियों पर भी इस विचार-. को प्रकट किया। इसके बाद राजाने पंचपरमेष्ठी मन्त्रका स्मरण करते हुए, दोनों स्त्रियोंके साथ विष-मिश्रित कमलको सँघ कर प्राणत्याग कर दिया। उसी समय सत्यभामाने भी कपिलके डरके मारे उसी रीतिसे प्राणत्याग कर दिया। वे चारों जीव मरकर जम्बूद्वीपके महाविदेह क्षेत्रके अन्तर्गत उत्तर कुरुक्षेत्रमें जुडैले बालककी तरह उत्पन्न हुए। श्रीषेण और उनकी पहली स्त्री एक साथ पैदा हुए और दूसरी जुडैली बालिकाएँ सिंहनन्दिता तथा सत्यभामा हुई। . इधर श्रीषेण राजाकी मृत्यु हो जानेके बाद एक चारण-मुनिने वहाँ आकर युद्ध करते हुए इन्दुषेण तथा बिन्दुपेणसे कहा,- "हे राजकुमारों ! तुम दोनों ही बड़े कुलीन और सुन्दर हो; पर क्या यह निष्ठुर कार्य करते हुए तुम्हें लजा नहीं पाती? तुम्हारी इस दुष्ट चेष्टाको देखकर ही तुम्हारे माता-पिता. विष सूंघकर मर गये। अब तो तुम अपने माता-पिताके उपकारका बदला किसी तरह नहीं दे सकते। कहा है, किअस्मिन् जगति महत्यपि, न किञ्चिदपि वस्तु वेधसा विहितम् / अतिशयवत्सलताया, भवति यतो मातुरूपकारः .. 1 // 'इस इतने बड़े संसारमें भी विधाताने ऐसी कोई वस्तु नहीं बनायी, जिससे अत्यन्त वात्सल्यमयी माताका प्रत्युपकार किया जा सके / ' P.P.AC.Gunratnasuri M.S.. . Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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