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________________ 112 श्रीशान्तिनाथ चरित्र। रवानः कर दिया और दोनों भाइयोंने परस्पर विचार किया, "यह राजा दमितारि विद्याके बलसे कहीं हमलोगोंको हरा न देवे, इसलिये हमलोगोंको चाहिये, कि उसके पहलेही विद्याका साधन कर उसका गर्घ चूर-चूर कर डालें।" वे दोनों भाई इस प्रकार विचार कर ही रहे थे, कि उनके पूर्व भवकी विद्याएँ उन्हें आपसे आप याद हो आयीं और उनके पास आकर बोली,-"तुम लोग तो हमें सिद्ध कर ही चुके हो, अब हमारे लिये नये सिरेसे साधना करनेकी कोई ज़रूरत नहीं है।" यह कह, वे सब उन दोनोंके शरीरमें प्रविष्ट हो गयीं। उस समय वे दोनों भी विद्याओंके प्रभावसे बड़े बलवान् विद्याधर हो गये। इसके बाद उन्होंने चन्दन, पुष्प इत्यादिसे उन विद्याओंका पूजन किया। इसी समय राजा दमितारिके दूतने उनके पास लौट आकर कहा,"अरे, क्या तुझ मौत सवार है, जो तुमने अभी तक प्रभुके पास उन दासियोंको नहीं भेजा ?" .. यह सुन, दोनों भाइयोंने कहा,-"भला स्वामीका काम कैसे बाफ़ी रह जाता ! हमलोग उन्हें भेज चुके / " - -- . यह कह, उन्होंने दूतको शान्त कर दिया। इसके बाद उन दोनों भाइयोंने राजा दमितारिकी पुत्री स्वर्णश्रीके साथ विवाह करने के लोभसे स्वयं दासियोंके रूप धारण कर, तत्काल राजा दमितारिके पास आ पहुँचे। तदनन्तर अपनी कला-कुशलता दिखलाकर उन्होंने राजाको प्रसन्न कर दिया। राजाने उनसे कहा,-"दासियों! तुम दोनों मेरी कनकश्री नामक कन्याके पास रहो और उसका दिल बहलाया करो।" . यह सुन, उन दोनोंने बहुत अच्छा, कह कर अपने मनमें विचार किया,-"जैसे कोई बिल्लीको दूधकी रखवाली सौंप दे, वैसेही इस राजाने अपनी कन्याको हमारे हवाले कर दिया है। यही सोचते-विचारते हुए वे दोनों दासीका रूप धारण किये अद्वितीय रूपवती राजकुमारी कनकधीके पास आये। उसका रूप देखकर उन्होंने Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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