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________________ 1.15.15] / हिन्दी अनुवाद 14. कनकपुरके राजा रानी वह नगर सूर्यकान्त मणियोंसे तप्त होता और चन्द्रकान्त मणियोंसे झरते जलके द्वारा आर्द्र होता है। वह मरकत मणियोंको कान्तिसे हरा दीखता तथा स्फटिकसे पाटी हुई भूमिके कारण शुक्ल वर्ण दिखाई देता है। वह इन्द्रनील मणियोंको कान्तिसे नित्य नीला है और इस प्रकार वह इन्द्रकी नगरीकी शोभाका भी हरण करता है। उस नगरमें जयन्धर नामका राजा राज्य करता था / वह अपने तेजसे मध्याह्न सूर्यको भी जोतता था। वह रूपसे कामदेव, कान्तिसे चन्द्र, धनसे कुबेर और वैभवसे सुरेन्द्र था। दण्डसे दण्डहस्त यमराज होते हुए भी क्षत्रियके धर्म और गुणोंरूपी रत्नोंको खान था। उसकी श्रेष्ठ पत्नी विशालनेत्रा थी जिसने अपने नेत्रोंकी शोभासे हरिणके नेत्रोंको भी लज्जित कर दिया था। उसके कामदेवके सदृश श्रीधर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो शत्रुरूपी वृक्षोंके लिए अग्नि समान था। ये सब जब उस नगरमें सुख पूर्वक निवास कर रहे थे तब एक दिन अपनी ऋद्धि द्वारा इन्द्रको भी पराजित करनेवाला वासव नाम वणिक स्त्रोके चित्रसे अंकित पट लेकर आया। उसने आकर राजाको नाना माणिक्य भेंट किये। किन्तु राजाने उनकी ओर देखा भी नहीं। वह केवल उस पटपर चित्रित परम सुन्दरोके सुललित अंगोंको ही देखता रहा // 14 // 15. वणिक्ने राजाको बतलाया कि वह गिरिनगरको राजकुमारी पृथ्वीदेवी है राजा अपने मनमें मदनके बाणसे घायल हो गया / उसने वणिक्का सम्मान करके पूछायह कन्या तो जैसे कामको भल्लो, कामको लता, कामको सुखदायक रति, कामकी युक्ति, काम की वृत्तिं, कामको ढेरी एवं कामकी शक्ति जैसी दिखाई देती है। भला कहो तो सही यह कुण्डलोंसे चमचेमाते हुए कानोंवाली कन्या कौन है और किसको पुत्री है? तब उस श्रेष्ठी ने कहा-हे लक्ष्मीके. सुखका रस लेनेवाले स्वामिश्रेष्ठ, मैं वाणिज्यके लिए गया था। सागरको पार करते हुए मेरा सुर-विमान सदृश जलयान गिरिनगरमें जा लगा। वहाँ मैंने सौराष्ट्र भूमि-मण्डलके नरेश श्रीवर्मराजके दर्शन किये जिसने अपनी खड्गको धारासे बैरियोंके सिर काट डाले थे, तथा जिसका प्रताप सूर्यको तोव किरणोंके समूहसे भी अधिक दुःसह था / उसको, अर्धांगिनो श्रीमती देवी थीं, जैसे मानो स्वयं कामदेव रतिसे मण्डित हो। उस देवीसे नरेन्द्रने अपूर्व रूपवती पृथ्वी महादेवी नामक पुत्रीको जन्म दिया। उसे देखकर मैंने कहा-यह सुन्दर-मुख निरुपम नारी-रत्न अत्यन्त ही उत्तम हैं। यह तो मेरे प्रभु जयन्धरके योग्य है। इसपर उसके पिताने कहा-मैं उन्हें इसका वाग्दान करता हूँ। अब और कुछ झूठ (व्यर्थ ) उत्तर देनेसे क्या लाभ, तुम स्वयं इसे अपने प्रभुके पास ले जाओ। यह सुनकर मैंने उस सुन्दरीके प्रतिबिम्बको पटपर चित्रित कराया और उसे लाकर, हे __ नरेश्वर, मैंने आज तुम्हें दिखलाया // 15 // - P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036460
Book TitleNag Kumar Charita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadant Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages352
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size337 MB
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