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________________ 26 णायकुमारचरिउ महाभारतकी कथाका वर्णन किया था। उनकी रचनाके कुछ उदाहरण स्वयंभू-छन्दस्में भी पाये जाते हैं / उनके सम्बन्धका एक विशेष सूचनात्मक उल्लेख महाकवि धवलकृत हरिवंशपुराणमें पाया जाता है जो अबतक अप्रकाशित है / उसके आदिमें उन्होंने कहा है कि हरि-पांडवाण-कहा चउमुह-बासेहि भासियं जया / तह बिरयमि लोयपिया जेण ण णासेइ दंसणं परं // अर्थात् हरिवंश व पाण्डवों की कथा व्यास और चतुर्मुखने भी की है। उसी कथाको में इस प्रकार वर्णन करने जा रहा हूँ जिससे जैन धर्म सम्बन्धी आस्थाका घात न हो। इस उल्लेखसे यह भी इंगित होता है कि चतुर्मुखने अपनी रचनामें व्यासका अनुकरण किया था. जैन परम्पराका नहीं। कितनी महत्त्वपूर्ण होती यह रचना यदि वह हमें प्राप्त होती। संभव है उसे जैनियोंने इस कारण संरक्षण नहीं दिया क्योंकि वह जैन परम्परानुकूल नहीं थी, और ब्राह्मण परम्परामें उसे इस कारण आश्रय नहीं मिला क्योंकि वह एक संस्कारहीन असंस्कृत भाषामें लिखो गयी थी। इस प्रसंगमें कुछ ऐसा ही एक अन्य उदाहरण मुझे स्मरण आता है। प्राकृत भाषाका एक 'द्रव्य-स्वभाव-प्रकाश' नामक माहिल्लधवलकृत ग्रन्थ है। उसकी अन्तिम गाथाओंमें कहा गया है कि वह रचना आदितः दोहाबद्ध रची गयी थी। किन्तु उसे सुनकर कर्ताक सम्भवतः शुभंकर नामक एक मित्रने हंसकर कहा कि यह तो गम्भीर न्यायका विषय है, वह इस दोहाछन्दमें शोभा नहीं देता, अतएव इसे गाथाबद्ध कीजिए। इस आलोचनाको प्रतिक्रियानुसार उसे गाथाओंके रूपमें बदल दिया गया। यह बात विक्रमकी दसवीं शतीके अन्त की है और उससे ज्ञात होता है कि उस समय तक भी विद्वत्-समाजमें अपभ्रंश भाषा और उसके दोहादिक छन्द हेय दृष्टिसे देखे जाते थे। इस पूर्वाग्रहो और नवीनता-विरोधी साहित्यिक रुचिने न जाने कितनी बहुमूल्य रचनाओंको हमारे पासतक आनेसे पूर्व ही विनष्ट कर डाला / तथापि जो कुछ भी साहित्य बच रहा है वह इस बातका प्रमाण है कि पुष्पदन्तके काल अर्थात् दसवीं शतीके पूर्व ही अपभ्रंश भाषाने अपना एक टकसाली साहित्यिक रूप धारण कर लिया था और पर्याप्तरूपसे छन और मंजकर वह समस्त साहित्यिक गुणोंसे परिपूर्ण प्रबन्धकाव्योंका एक सक्षम माध्यम बन चुकी थी। पुष्पदन्तने अपनी रचनाओं द्वारा उसे और भी सुसमृद्ध बना दिया जिससे वह न्यायोचित रीतिसे संस्कृत और प्राकृतके उत्कृष्टतम महाकाव्यों की दृष्टि से भी उनके समकक्ष बैठानेके योग्य हो गयी। 6. अपभ्रंश शब्दावलि व वर्ण-विन्यास प्राकृत-अपभ्रंश भाषाओंमें प्रयुक्त शब्दोंको तीन वर्गोंमें विभाजित किया जाता है-तत्सम, तद्भव व देशो / संस्कृतके अविकल शब्द तत्सम कहलाते हैं जिनमें संस्कृतके शब्दसे कुछ वर्ण-विकृति पायी जाती है वे तद्भव हैं / तथा जो शब्द संस्कृतसे इतने अधिक भिन्न हैं या विकृत हो गये हैं कि प्राकृत व्याकरणके नियमोंसे उनको व्युत्पत्ति सिद्ध नहीं होती और न अर्थकी सुसंगति बैठती एवं सामान्यत: उनका प्रयोग भी बहुलतासे नहीं पाया जाता उन्हें देशी शब्द कहा गया है। भाषाशास्त्रियोंका अनुमान है कि वे आर्येतर द्राविड-आदि भाषाओंसे आये होंगे जिनका प्रचार लोकवाणो में हो गया होगा। यहां उदाहरणके लिए केवल प्रथम कडवक की शब्दालिका उक्त तीन वर्गों में विभाजन किया जाता है। १-तत्सम शब्द-भाव, पंचगुरु, कलि, मल, गुण, फल, कुमार, चारु, अलंकार, लीला, कोमल, बहु, हाव, भाव, छन्द, रस, अंग, भंगि, देवी, कर, असि, जल, धवल / २-तद्भव शब्द-वज्जिअ, भरिअ, सुय, णाय, चरिअ, दुविह, पय, महकन्व, विम्भम, सुपसत्य, अत्थ, सव्व, विण्णाण, णीसेस, देसभास, लक्खण, विसिट्ठ, मग्ग, पाण, दह, णव, विग्गह, तअ, चउदह, पुन्विल्ल, दुवालस, जिण, वयण, विणिग्गय, सत्त, वायरण, वित्ति, पायडिय, णाम, महु, मणोहिराम, सिरि, कण्हराय, यल, णिहिय, बाहिणि, दुग्गयरि, हर, सिहर, तय, मेहउल, पविउल, मण्णखेड, णयरि / P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036460
Book TitleNag Kumar Charita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadant Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages352
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size337 MB
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