________________ प्रस्तावना "तावच्चिय सच्छंदो भमइ अबभंस-मत्त-मायंगो / जाव ण सयंभु-वायरण-अंकुसो पडई" // अर्थात् यह अपभ्रंशरूपी मत्त मातंग तभीतक स्वच्छन्द विहार करता है जबतक उसपर स्वयंभूके व्याकरणका अंकुश नहीं पड़ता। इससे स्पष्ट है कि अपभ्रंशका एक मानकरूप स्वयंभूके समय में प्रकट हो चुका था / किन्तु फिर भी उसमें बहुत वैकल्पिक रूपोंका प्रचलन था जिसे स्वयंभूने अपने व्याकरण द्वारा उसी प्रकार नियमित कर दिया, जिस प्रकार कि पाणिनिने वैदिककालसे प्रचलित नाना शब्द-रूपोंके व्यत्ययों व बाहुलकत्वको व्याकरणमें अपने उत्सर्ग और अपवाद नियमोंमें बांधकर संस्कारयुक्त संस्कृत भाषाका आविष्कार किया था। इसी प्रकार स्वयंभूने अपभ्रंशके छन्दोंको भो नियमित किया था। उनको यह रचना स्वयंभू छन्दस् नामसे प्रकाश में आ चुकी है। किन्तु दुर्भाग्यवश उनका अपभ्रंश व्याकरण अभी तक उपलभ्य नहीं हुआ। महाकवि पुष्पदन्तसे पूर्व बहुत कुछ अपभ्रंश काव्य-रचना हो चुकी थी। जान पड़ता है कि यह रचना आदितः दोहा छन्दमें व मुक्तक पद्योंके रूप में हुई होगी जिनके द्वारा साधु-सन्त जनसाधारणमें अपने विचारोंका प्रचार करते थे। दोहा छन्द अपभ्रंश को उसी प्रकार विशेष उपलब्धि है जिसप्रकार प्राकृत की गाथा छन्द है व संस्कृतका श्लोक / बौद्ध-साहित्य में सरहप्पा, कण्होपादादि सिद्धोंके बहुतसे.. दोहाकोष पाये जाते हैं, और जैन साहित्यमें भी परमात्म-प्रकाश, योगसार, सावयधम्म-दोहा, पाहुड-दोहादि अनेक दोहात्मक रचनाएं हैं / हेमचन्द्रने अपने व्याकरणमें जो अपभ्रंश के उदाहरण दिये हैं वे भी प्रायः सब दोहात्मक ही हैं। किन्तु एक बार जहाँ अपभ्रंश में रचना होना प्रारम्भ हुआ तहाँ साहित्यकी अन्य विधाओं में भी अपभ्रंश रचनाएँ होने में देर नहीं हुई.। कालिदास विरचित 'विक्रमोर्वशी' नामक नाटकमें बहुत से पद्योंको अपभ्रंश भाषाके रूपमें रखा है। कुछ विद्वानोंने यह विचार प्रकट किया है कि वे अपभ्रंश पद्य कालिदासकृत नहीं हैं और उनके पश्चात् किसीने उन्हें प्रक्षिप्त कर दिया है। किन्तु यह बात समस्त परम्पराके प्रतिकूल प्रतीत होती है। ऐसा तो बहुतायतसे पाया गया है कि प्राकृतको संस्कृत रूपान्तरमें प्रकट किया जाये / यह प्रवृत्ति आजकल विशेषरूपसे जोर पकड़ती जा रही है। परन्तु प्राकृत या अपभ्रंशको संस्कृत में मिलाने के कोई अन्य प्रमाण दृष्टिगोचर नहीं होते / नाटकके उस प्रकरणको देखते हुए तथा भरतमुनिके नाटक सम्बन्धी निर्देशोंको ध्यान में रखते हुए यही प्रतीत होता है कि वे स्वयं कालिदास की ही रचना है। भरतमुनिने कहा है कि जब नायक अपने होश-हवाशमें न हो तब वह अपने विचार संस्कृतमें नहीं, किन्तु अपनो प्राकृत बोली में ही प्रकट करे। यह बहुत ही स्वाभाविक है, क्योंकि संस्कृत कृत्रिम भाषा है जो सोखकर बड़े प्रयाससे ग्रहण की जाती है। परन्तु जब कोई व्यक्ति अपनी चेतना खो बैठता है तब उसका वह बनावटीपन छूट जाता है और वह अपनी स्वाभाविक मातृभाषाका ही प्रयोग करने लगता है। अतएव यह प्रमाणित होता है कि कालिदासने बड़ों सूझ-बूझके साथ वहाँ उसी बोलीका प्रयोग किया है जो उनके समयमें जनसाधारणके बीच प्रचलित रही होगी। जहां वह भाव संस्कृतमें भी व्यक्त किया पाया जाता है, हो सकता है वह प्रक्षिप्त हो। डॉ. वेलनकरने अपने द्वारा सम्पादित व साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित विक्रमोर्वशी नाटक की प्रस्तावनामें भी यही बात सिद्ध को है। : उपलभ्य अपभ्रंश साहित्यमें प्रबन्ध काव्यरूप रचनाएं स्वयंभूकृत पउमचरिउ और रिटनेमिचरिउ ( रामायण और महाभारत ) हैं। अपनी इन रचनाओं के आदिमें स्वयंभू ने अपने पूर्ववर्ती अनेक साहित्यकारोंका ऋण स्वीकार किया है जिनमें संस्कृत पद्मचरितके कर्ता रविषेण ( 676 ई० ) तथा संस्कृत आदिपुराणके कर्ता जिनसेन ( 900 ई० से कुछ पूर्व ) के अतिरिक्त बाण और हर्ष भी हैं। उन्होंने हर्ष से निपुणत्व और बाणसे शब्दसमृद्धि व सौष्ठव पानेका उल्लेख किया है। किन्तु इसके अतिरिक्त जो बात प्रस्तुत प्रसंगमें विशेष महत्त्वपूर्ण है वह यह कि उन्हें छडुनिया और दुवई छन्दोंसे संघटित पद्धडिया छन्द की प्राप्ति चउमुह (चतुर्मुख) नामक उनके पूर्ववती कविस हुई, 'छड्डणिय-दुवइ-छन्देहि घडिय। चउमहिण समप्पिय पद्धडिय // अन्य अनेक उल्लेख ऐसे पाये जाते हैं जिनसे सिद्ध होता है कि चउमह ने अपभ्रंश में P.P.AC.Gunratnasuri M.S.. Jun Gun Aaradhak Trust