________________ णायकुमारचरिउ जाती हैं। इससे ज्ञात होता है कि ये श्लोक ग्रन्थके रचनाकालमें हो अनुक्रमसे नहीं लिखे गये, किन्तु वे उसके आगे-पीछे लिखे गये होंगे और उन्हें कविने अथवा उनके निकटवर्ती शिष्य या लिपिकने पीछे समाविष्ट कर दिया होगा। यद्यपि उससे यह तो प्रमाणित होता है कि कवि 972 ई. तक जीवित थे, किन्तु महापुराणको रचना 965 ई. में समाप्त हो चुकी थी, इसमें सन्देहके लिए कोई अवकाश नहीं। 3. पुष्पदन्तको रचनाएँ पुष्पदन्तकी तीन रचनाएँ उपलभ्य हैं, और इन तीनों का भलीभांति सम्पादन-प्रकाशन हो चुका है / उनकी सबसे प्रथम और विशाल रचना महापुराण है, जो 102 सन्धियों में एवं उनके अन्तर्गत 1907 कडवकोंमें पूरा हुआ है। इसका गुणनाम कविने तिसट्ठि-महापुरिस-गुणालंकार (त्रिषष्ठिमहापुरुष-गुणालंकार ) प्रकट किया है, क्योंकि उसमें जैन धार्मिक परम्परामें प्रख्यात चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नो बलभद्र, नो नारायण और नौ प्रतिनारायण, इन वेसठ शलाकापुरुषोंका चरित्र वर्णित है। सबसे अधिक विस्तारसे वर्णन आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ और उनके ज्येष्ठ पत्र प्रथम चक्रवर्ती भरतका है जो प्रथम सैंतीस सन्धियोंमें समाप्त हआ है और उतनी रचनाका नाम आदिपराण है। इससे आगेका भाग उत्तरपुराण कहलाता है जिसमें शेष तीर्थंकरोंके जोवन-चरित्रके साथ-साथ उनके समकालवी अन्य शलाकापुरुषोंका चरित्र भी वर्णित है / अन्तिम तीर्थंकर महावोरके चरित्रका वर्णन अन्तको आठ सन्धियोंमें समाविष्ट है। इतनो सब रचना महाकविने अपने आश्रयदाता तथा राष्ट्रकूटनरेश कृष्णराज तृतीयके महामात्य भरतको प्रेरणासे की थी और उसमें उन्हें सि संवत्सरसे लेकर क्रोधन संवत्सर तक छह वर्ष ( ई. सन् 959 से 965 ) लगे थे। कथावस्तु की दृष्टिसे इसका समस्त विषय वही है जो संस्कृत महापुराण अर्थात् जिनसेनकृत आदिपुराण और गुणभद्रकृत उत्तरपुराणमें पाया जाता है, और जिसका रचनाकाल शक 820 ( ई. 898) से कुछ पूर्व सिद्ध होता है। इस रचना प्रसंगानुसार देश, नगर, पर्वत, नदी, पुरुष, स्त्री, ऋतुओं, शृंगारलीलाओं एवं युद्धों आदिका उसो आलंकारिक रोतिसे वर्णन पाया जाता है, जो महाकाव्योंको विशेषता बतलायी गयो है। पुष्पदन्तको दूसरी रचना है जसहरचरिउ (यशोधरचरित्र ) जो चार सन्धियोंके अन्तर्गत 138 कडवकोंमें समाप्त हुआ है। इस काव्यका कथानक यह है-यौधेयदेशके राजा मारिदत्तको राजधानी राजपुर थी। एक समय वहां कौलाचार्य भैरवानन्द आये और उनसे राजाने आकाशगामिनोविद्या सिद्ध करानेको प्रार्थना की। कौलाचार्यने इसके लिए चण्डमारीदेवोके सम्मुख समस्त जातियोंके एक-एक युगलका बलि चढ़ाना आवश्यक बतलाया। सब पशुओंके जोड़े एकत्र हो जानेपर एक नरमिथुनको कमी रही। उसी समय नगरके बाह्य उद्यानमें जैनमुनि सुदत्तका अपने संघसहित आगमन हुआ। उनके संघके एक अभयरुचि नामक क्षुल्लक और अभयमती नाम की क्षुल्लिका जब नगरमें आहारके लिए प्रविष्ट हुए, तब राजपुरुषोंको दृष्टि उनपर पड़ी और वे उन्हें पकड़कर चण्डमारोके मन्दिरमें ले गये। उन्हें देखकर राजा मारिदत्त बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने अभयरुचिसे अपना पूर्ववृत्तान्त बतलाने का आग्रह किया / इसपर क्षुल्लकने अपने जीवनको घटनाएँ कहना प्रारम्भ किया। उन्होंने कहा कि एक समय अवन्तिदेशको राजधानी उज्जयिनी में यशोबन्धुर नामक राजा राज्य कर / रहे थे / उनके उत्तराधिकारी हुए राजा यशोह, जिनकी रानीका नाम था चन्द्रमती। वे अपने पुत्र यशोधरको राज्य देकर प्रवजित हो गये और यशोधर राज्य करने लगे। ( सन्धि 1) यशोधर भोग-विलासी प्रवृत्तिके थे। उनकी रानो अमृतमती स्वैरिणी निकली। वह एक दिन राजाको सोते छोड़ प्रासादके एक कुबड़े सेवकसे प्रेम करने चली गयी। राजाने उसे देख लिया और उन दोनोंको मार डालनेकी इच्छा को। किन्तु कुछ सोच-विचारकर उन्होंने ऐसा करना उचित नहीं समझा / दूसरे दिन उन्होंने अपनी मातासे कहा कि उन्होंने गतरात्रि एक स्वप्न देखा है, जिसके P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust