________________ प्रस्तावना इस उल्लिखित कालसे पूर्वको है / पुष्पदन्तकृत महापुराणपर एक प्राचीन टिप्पण भी पाया जाता है जो राजा जयसिंहदेवके कालमें धारानिवासी प्रभाचन्द्र पण्डित द्वारा लिखा गया है / धाराके परमार नरेश जयसिंहदेव राजा भोजके उत्तराधिकारी थे और उनके समयका एक ताम्रपत्र सं. 1112 ( सन् 1055 ) का पाया गया है। निस्सन्देह उक्त टिप्पण इसी कालके आसपासका है ( देखिए अंगरेजो प्रस्तावना ) / किन्तु महापुराण टिप्पणको एक अन्य प्रतिमें उल्लेख है कि इसकी रचना श्रीचन्द्र मुनिने भोजदेवके राज्यके विक्रम सं. 1080 (सन् १०२३)में की थी और इसे उन्होंने अपना “समुच्चय टिप्पण" कहा है क्योंकि उन्होंने उसे मूल टिप्पणिका तथा सागरसेन द्वारा प्राप्त “महापुराण-विषम-पद-विवरण" को देखकर लिखा था। (म. प. प्रस्तावना पृष्ठ 14 ) / सम्भव है ये श्रीचन्द्र मुनि वे ही हों जिन्होंने संवत् 1123 में अर्थात् इस टिप्पणसे 43 वर्ष पश्चात् "दंसण-कह-रयण-करण्ड" नामक ग्रन्यको, और फिर "कहाकोसु"की रचना की थी ( देखिए 'कहाकोसु' प्राकृत ग्रन्य परिषद् ग्रन्थांक-१३, अहमदाबाद 1969, प्रस्तावना पृ० 4) / इसका तात्पर्य यह है कि पुष्पदन्त की रचनाएँ वि. सं. 1080 से भी विशेष प्राचीन हैं। महापुराण को कुछ प्रतियों में सन्धि-शीर्षक एक श्लोक पाया जाता है जिसमें कहा गया है कि "जो मान्यखेटपुर दीन और अनाथोंका धन था व विद्वानोंका प्यारा था वह धारानाथ नरेन्द्र को कोपाग्निसे भस्म हो गया; अब पुष्पदन्त कवि कहाँ निवास करेंगे" ( म. पु., प्रस्तावना पृष्ठ 25 ) / स्पष्टतः यह उल्लेख उसी घटनाका है जो धनपालकृत 'पाइयलच्छिनाममाला' तथा परमारनरेश हर्षदेव सम्बन्धी एक शिलालेखमें भी उल्लिखित पायो जाती है। धनपालने स्पष्ट ही कहा है कि उन्होंने अपने उक्त कोशको रचना वि. सं. 1029 (सन् 972 ) में की थी, जवकि मालवाके राजाने मान्यखेटको लूटा और जलाया था। इसी घटना और उसके कालका समर्थन उक्त शिलालेख से होता है, जिसमें हर्षदेव द्वारा राष्ट्रकूटनरेश खोट्टिगदेवको लक्ष्मीका अपहरण किये जानेका उल्लेख है / तात्पर्य यह कि प्रस्तुत ग्रन्थके कर्ता पुष्पदन्त उक्त घटनाके समय जीवित थे। उन्होंने अपनी रचनाओं में अपने रचनाकालके विषयमें मान्यखेटके राष्ट्रकूटनरेश कृष्णराज का उल्लेख किया है और उनके द्वारा चोलनरेश ( राजादित्य )के मारे जानेका भी उल्लेख किया है। (णायकु. 1,1, 11-12 तथा महा. पु. 1, 3, 2-3) / महापुराणके उक्त उल्लेखमें राजाका उपनाम 'तुडिगु' कहा गया है, जो सम्भवतः उनके तेलुगु अर्थात् तेलंगानाके नरेश होनेका सूचक है / यह घटना खोट्टिगदेवसे पूर्वकालीन है और खोट्टिगदेवका उल्लेख शक 893 ( सन् 971 ) के एक शिलालेखमें पाया जाता है / कविने कहा है कि उन्होंने महापुराणको रचना सिद्धार्थवर्षमें प्रारम्भ को ( महा. पु. 1,3,1 ) और उसे समाप्त किया क्रोधन संवत्सरकी आषाढ़-शुक्ल दशमीको, ( महा. पु. 102, 14, 13 ) / सिद्धार्थ और क्रोधन 60 वर्षीय संवत्-चक्रके विशेष वर्षों के नाम हैं और उनमें क्रोधन सिद्धार्थसे 6 वर्ष पीछे आता है। कृष्णराज और खोट्टिगदेव के राज्यकाल को ध्यानमें रखकर ज्योतिषगणनाके अनुसार क्रोधन संवतकी आषाढ सुदी 10 पायी जाती है ई. सन् 965 को 11 जूनको / अतः यही समय महापुराणकी समाप्तिका है। इसीके कुछ समय पश्चात् णायकुमारचरिउ तथा जसहरचरिउकी रचना हुई होगी, क्यों पुराणमें महामन्त्री भरतका उल्लेख है और इन दोनों चरित्रोंमें उनके पुत्र नन्न का। चूंकि णामारचरिउमें कृष्णराजका तथा नन्नको प्रशंसा और उनके द्वारा प्रार्थनादिका विशेष उल्लेख है जो जसहरचरिउमें नहीं है, अतः सम्भवतः णायकुमारचरिउको रचना जसहरचरिउसे पूर्वकालोन है। यहाँ एक शंकाका निराकरण करना आवश्यक प्रतीत होता है। ऊपर कहा गया है कि मालवनरेश हर्षदेव द्वारा मान्यखेटका विध्वंस वि. सं. 1029 ( सन् 672) में हुआ था और उसका उल्लेख पुष्पदन्तने अपने महापुराणके अन्तर्गत एक श्लोकमें भी किया है / तब फिर महापुराणको रचना उससे सात वर्ष पर्व समाप्त हुई कैसे मानी जा सकती है ? इसका उत्तर यह है कि उस घटना का उल्लेख करनेवाला वह संस्कृत श्लोक महापुराणका अंग नहीं, किन्तु उसको एक सन्धिके शोर्षकरूपमें पाया गया है। और वह भी केवल दो प्रतियोंमें, अन्यमें नहीं। इन दोमें-से एकमें वह पचासवीं सन्धिके ऊपर और दूसरीमें बावनवीं सन्धिके ऊपर पाया जाता है। ऐसी ही विप्रतिपत्तियां अन्य सन्धि-शीर्षक श्लोकोंके विषयमें भी पायो [3] P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust