________________ 16 णायकुमारचरिउ अभिमानमेरु पुष्पदन्तने खिन्न होकर उनसे कहा कि गिरि-कन्दराओंमें रहकर और कसेरू घास खाकर जीवन बिताना अच्छा, किन्तु दुर्जन पुरुषोंके मलिन भावोंसे अंकित वक्र भृकुटी देखना अच्छा नहीं। उन्होंने राजाओं और धनी पुरुषोंकी निन्दा करते हुए यह भी कहा कि आजकलके लोग बड़े नीरस हैं। उनमें किसी विशेषगुणका आदर नहीं / वे बृहस्पतिके गुणोंमें भी दोषकी उद्भावना करते हैं। इसलिए हमें वनका आश्रय लेकर स्वाभिमानपूर्वक मरण प्राप्त करना ही भला है। इसपर कविके क्रोधको शान्त करते हुए जब उन दोनों पुरुषोंने भरतमन्त्रीके गुणों और विशेषताओं व उनके द्वारा कवियोंके आदर-सत्कारको बात कही, तब कहीं बड़ो कठिनाईसे कवि भरतके पास जानेको सहमत हुए। भरतने बड़े आदरभावसे उनका स्वागत किया और अपने प्रासादमें रखा। फिर कुछ दिनों पश्चात् भरतने कविसे प्रार्थना की कि आपने अपनी राज्यलक्ष्मीसे सुरेन्द्रको भी जीतनेवाले भैरवनरेन्द्र वीररावको जो सम्मानपूर्वक स्तुति की है, उससे आपके हृदयमें मित्थ्यात्वभाव उत्पन्न हो गया है। अतएव आप उसके प्रायश्चित्त स्वरूप पुरुदेव अर्थात आदिदेव ऋषभनाथके चरित्रका वर्णन कीजिए / इसपर भी पुष्पदन्तने दुर्जनोंकी निन्दा करते हुए संकोच दिखलाया। किन्तु अन्ततः उन्होंने भरतके आग्रहको स्वीकार कर लिया और वे महापुराणकी रचनामें प्रवृत्त हो गये / महापुराणमें वर्णित इस घटनासे स्पष्ट हो जाता है कि पुष्पदन्त आदिसे मान्यखेटनिवासी नहीं थे। यहाँ आनेसे पूर्व वे किसी वीरराव नामक शवधर्मावलम्बी राजाके आश्रयमें रहते थे और उसकी प्रशंसामें उन्होंने कुछ काव्य-रचना भी की थी। अनुमानतः वे भी अपने जीवनके आदि-कालमें अपने पिताके समान शिवके उपासक रहे हों। संस्कृतमें जो शिवमहिम्नस्तोत्र है, उसके कर्ताका नाम भी पुष्पदन्त कहा जाता है। उनके प्रस्तुत पुष्पदन्तके एकत्वका प्रश्न भी विचारणीय है। ये संस्कृत पद्य-रचनामें प्रवीण थे यह तो उनके भरत व नन्नकी प्रशंसामें लिखे गये अनेक पद्योंसे प्रमाणित है। पश्चात् उनके जैनधर्म स्वीकार कर लेनेपर उनके आश्रयदाता नरेश उनसे रुष्ट हो गये हों जिनके कारण कविराज उनका आश्रय छोड़, उनके राज्यके बाहर राष्ट्रकूट नरेशोंके राज्यमें आ गये हों, क्योंकि उस समय राष्ट्रकूट नरेशोंका जैनधर्मके प्रति विशेष अनुराग पाया जाता था। महापुराणमें दो स्थानों (1,3,9 व 1,6,1) पर कविका 'खण्ड' नामसे उल्लेख किया गया है / यह नाम आजकल गुजरातमें सुप्रचलित व लोकप्रिय है / वहीं खण्डुभाई नामके अनेक व्यक्ति पाये जाते हैं / महाराष्ट्रमें भी खांडेराव नाम सुप्रचलित है। भरतको अन्नैया का पौत्र व श्रीदेवी या श्रोअम्बादेवी का पुत्र कहा गया है / टिप्पण में स्पष्टीकरण है कि अन्नया के पुत्र थे ऐरण और ऐरण के पुत्र भरत थे। 2. ग्रन्थका रचनाकाल पुष्पदन्तने यद्यपि णायकुमारचरिउमें तथा अपनी अन्य रचनाओंमें अपने रचनाकालका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया, तथापि इस विषयमें उन्होंने जो व्यक्तियों व घटनाओं आदिका उल्लेख किया है तथा अन्य जो बाह्य साधन हमें उपलब्ध हुए हैं, उनपरसे रचनाकालका निश्चय करना सहज है। प्रस्तुत ग्रन्थके पाठ-संशोधन हेतु जिन पांच प्राचीन हस्तलिखित प्रतियोंका उपयोग किया गया है, उनमें से चारमें उनके लेखन-कालका उल्लेख है। इनमें सबसे अधिक प्राचीन प्रति सं. 1519 (सन् 1462 ) को है। कविकी अन्य दो रचनाओंमें उनकी जिन दस-बारह प्रतियोंका उपयोग किया गया है उनमें प्राचीनतम प्रति जसहरचरिउकी है जिसमें सं. 1390 (सन् 1333 ) का उल्लेख है / इसी जसहरचरिउमें तीन प्रकरण ऐसे पाये जाते हैं जो पुष्पदन्तकृत नहीं हैं, किन्तु उनके दीर्घकाल पश्चात् एक गन्धर्व नामक कवि द्वारा प्रक्षिप्त किये गये हैं / सौभाग्यसे गन्धर्वने अपने इन प्रक्षेपोंका स्पष्ट उल्लेख कर दिया है, और उन्होंने अपने रचनाकाल का भी स्पष्ट निर्देश कर दिया है। उन्होंने कहा है कि योगिनीपुर (दिल्ली) के वीसलसाहुने उनसे अनुरोध किया कि पुष्पदन्तकृत जसहरचरिउमें राजा और कौलाचार्य के मिलन का, यशोधरके विवाहका तथा उस चरित्रके पात्रोंके जन्म-जन्मान्तरोंका कुछ विस्तारसे वर्णन करके काव्यको और अधिक सुशोभित कीजिए। साह की इस प्रार्थनानुसार कृष्णके पुत्र गन्धर्वने संवत् 1365 ( सन् 1308 ) व्यतीत होनेपर वैशाख मास में अपनी वह रचना पूरी की। ( जसहरचरिउ 4,30 ) इससे स्पष्ट है कि पुष्पदन्तकी रचना P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust