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________________ -5. 13.2] हिन्दी अनुवाद हुए थे। ऐसी उस वन भूमिको देखते और भ्रमण करते हुए नागकुमारने उस जिन मन्दिरको देखा जहाँ दुष्कर्मोंके बहुसंचित रज आत्माके ज्ञानसे प्रकाशित होनेके समान, चिरकालसे बन्द वे कपाट उसके हाथके स्पर्श मात्रसे खुल गये / मन्दिरके भीतर उन्होंने चद्रप्रभ भगवान्के प्रतिबिम्बका / दर्शन किया जैसे मानो वह चन्द्रबिम्ब ही हो, अथवा यशका पुंज हो, जहां-जहाँ वे दृष्टि डालते थे वहां-वहां हो सुन्दर दिखाई पड़ता था / वह प्रतिबिम्ब एक सौ पांच धनुष ऊंचा था / नागकुमार ने प्रतिमाका अभिषेक किया तथा पूजा और वन्दना की, तथा स्वयं अपनेआपकी गर्दा और निन्दा की-हाय उस स्वर्गसे क्या लाभ जिसका संसर्ग क्षयशाली है ! उस सौभाग्यसे क्या जो फिर भी भग्न होता है, उस स्नेहसे क्या जो स्वप्नको इच्छाओंको बढ़ानेवाला हो तथा उस देहसे. क्या जिसमें सदैव जीवनका सन्देह बना रहता है ? यह संसार सारहीन और तुच्छ है। मेरे तो अब चन्द्रप्रभ स्वामो ही शरण हैं। फिर नागकुमारने वीणावाद्यके साथ अपनी तीनों श्रीयुक्त महादेवियोंका नृत्य कराया। फिर वह उन युवतियोंका स्वामी जिन्होंने अपने सिरपर लीला कमल धारण किया था, उस मन्दिरसे बाहर निकला। फिर उसने उस दीन मन पुलिन्दको देखा जो अपनी शबरीके वियोगरूपी अग्निसे दग्ध देह हो रहा था, जो बचाओ-बचाओ चिल्ला रहा था और सुननेवालोंमें करुणा उत्पन्न कर रहा था // 11 // 12. पातालमें दानवके भवनका दर्शन किन्नरोके पति नागकुमारने उस पुलिन्दसे पूछा-कहो, तुम अपनी पुकारसे इस वनको क्यों बहरा कर रहे हो? इसपर उस किरातने कहा-यहां एक कालगुफामें एक कान्तिमान भीमासुर नामका राक्षस रहता है। उसने सरल कमलपत्रके समान दीर्घ नेत्रोंवाली मेरी प्रिय पत्नीका अपहरण किया है। हे स्वामी, आप दीनोद्धारक दिखाई देते हैं। यदि आपसे हो सके तो. शीघ्र मेरी पत्नीको वापस दिलवा दीजिए। नागकुमारने उस वनचरके वचनको स्वीकार कर लिया। उसने वनचरको भोजन कराया और स्वयं भी भोजन किया। भोजनके पश्चात् काल वह व्यालको साथ लेकर पातालमें प्रविष्ट हुआ। उस पातालमें उसने दानवके भवनको देखा जो अदष्टपूर्व और अत्यन्त सुन्दर था। वह पंचरंगे ध्वजपटोंसे अलंकृत था व मोतियोंके कणोंकी रंगावलिसे सुशोभित था, तथा वहाँ कल्पद्रुमके नये पल्लवोंका तोरण लगा हुआ था। द्वारपालने वीर नागकुमारको देखकर उसे रोका नहीं। वह द्वारपर ऐसा मौन खड़ा रहा जैसे मानो वह निर्जीव काष्ठ-घटित प्रतिमा हो। वे दोनों महावीर गुफाके भीतर गये, और एक क्षणमें वे उस असुरके स्थानमें पहुँच गये। कामदेव नागकुमारके दर्शनमात्रसे वह असुर उत्कण्ठित हो उठा, और सिंहासनपर बैठा न रह सका / जो असुर देवोंके साथ सैकड़ों संग्राम करके भी मरा नहीं था वह नागकुमारके सम्मुख अर्धाजलि करके उठ खड़ा हुआ // 12 // 13. असुर द्वारा नागकुमारका सम्मान * उस असुरने नागकुमारको आसन दिया और वार्तालाप किया। फिर उसने उन्हें रत्नमयी आभूषण और मनोहर वस्त्र दिये। उसने सूर्य और देवोंसे भी अधिक उज्ज्वल खड्ग रत्न दिया एवं P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036460
Book TitleNag Kumar Charita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadant Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages352
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size337 MB
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