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________________ -4. 5. 14 ] हिन्दी अनुवाद 4. मुनि द्वारा यति धर्मका उपदेश ___ जो गुणगणधारी मुनीश्वर हैं उनको परम भक्ति करना चाहिए। और जो लँगड़े, लूले; गूंगे, बहरे, अन्धे, रोग और विषादसे ग्रस्त दुःखी अवस्थामें पड़े हैं उनपर करुणा करनी चाहिए। मनमें प्रवेश करनेवाले पापरूपी चोरका निवारण करो / आखेट एक दूसरा घोर पाप है। पापी लोगोंका पोषण करना अपने धनकोशको सुखाना मात्र है। वह इस भवमें तथा परभवमें दोष उत्पन्न करता है। अनगार धर्म वह है जिसमें कामके रागरंग छोड़ दिये जाते हैं। तथा समस्त परिग्रहसे मुक्त होकर पर्वतकी कन्दराओंमें निवास किया जाता है। मुनिधर्मका धारी तपस्यारूपी लक्ष्मीसे समृद्ध होता हुआ किसी भी घर, नगर या देशान्तरसे बंधता नहीं। मुनिव्रत घारी अपने मानका मर्दन कर लेता है तथा शत्रु और बन्धु, धन और तृणमें समताभाव रखता है। मुनिधर्मधारी अपने शरीरसे ममत्व नहीं रखता है तथा अपने पुत्र और कलत्रसे भी स्नेह छोड़ देता है / तपस्यारूपी अग्निसे तप्त मुनि विकार रहित मिले हुए भोजनमें ही प्रवृत्त होता है मुनिके शरीरमें चर्म और अस्थिमात्र शेष रहते हैं। वह स्वयं अपने केशोंका लोंच करता है तथा भूषण-वस्त्रविहीन नग्नवेष रहता है। मुनि शिला या भूमिपर ही शयन करता है। उसका शरीर धूलि आदि मलसे लिप्त हो जाता है और वह अपने नेत्र अधखुले रखता है। मुनिका अन्तरंग शुद्ध होता है, जैसे स्थलपर पड़ा हुआ कछुवा अपने अंगोंको संकुचित कर लेता है। मनुष्य अनगार धर्मके द्वारा ही कुकर्मोंका नाश करके परम लक्ष्मीका धारक श्रीधर (नारायण ), हलधर (बलदेव), जिनेन्द्र, भरतके समान चक्रवर्ती तथा देवेन्द्र होता है। 5. राजपुत्रों सम्बन्धी भविष्यवाणी हे नरेन्द्र ! सम्यक्त्व सहित श्रावक-व्रतोंके फलसे: देहधारी जीव अपने सत्कर्मरूपी वृक्षके फलित होनेपर सोलहवें सहस्रार स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। फिर राजाने मुनिराजसे पूछा-हे कामको जीतनेवाले भगवन्, मेरे दोनों पुत्र विजयको कामना रखते हैं। वे पृथ्वीपर राज्य करेंगे अथवा किसी अन्यका भृत्यत्व स्वीकार करेंगे जिसमें स्वामीके आदेशपर शत्रुका सब कुछ अपहरण कर लिया जाता है / हे धीरमुनि, मुझे उनका यह भविष्य बतलाइए / आप लोगों द्वारा पूज्य-चरण हैं और विशुद्ध वीर हैं / इसपर जीवजातिके स्वरूपको जाननेवाले गुरु बोले-जिसके दर्शनमात्रसे तीसरी आँख विलुप्त हो जावे वह मदनका अवतार तुम्हारे ज्येष्ठ पुत्रका स्वामी होगा। और जो कन्या परस्पर रूपका अत्यन्त अवलोकन होनेपर भी और चाहे जानेपर भी उसकी इच्छा न करे, ऐसी वह कन्या समस्त शास्त्रके जानकार . जिस पुरुषके-घरमें प्रवेश करेगी वही तुम्हारे लघु पुत्रका स्वामी होगा। यह सुनकर राजाका ' हृदय विरक्त हो गया / और वह बोला-जहाँ मेरे ये पुत्र दूसरोंकी चाकरी करेंगे वहाँ मैं समझता हूँ समस्त दिव्य लक्षण केवल बाणोंके घावोंके चिह्न मात्र हैं। हे महामुनि भगवन् ज्ञानरूपी चिन्तामणिके स्वामी, यह संसार दग्ध (क्षार ) के समान अत्यन्त तुच्छ है। __ जहां अपना कोई कार्य न सधे ऐसे राज्यका क्या करना है ? अब तो मुझे जिनवरकी ही एकमात्र शरण. है। अतएव हे त्रिभुवनके मदन-विदारक भट्टारक, मुझे तपश्चरणको दीक्षा दीजिए // 5 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036460
Book TitleNag Kumar Charita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadant Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages352
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size337 MB
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