________________ PP.AC.Gunratnasus M.S. म हवे जेणे जिनराज उपर वे वस्त्र चडाव्यां छे तेनुं फल कहुंछं. ते हे भव्यजनो ! तमे भावथी सांभलो.॥१७९॥ आ भरतक्षेत्रने विषे जयंती नामनी नगरी छे, त्यां क्षेमंकर नामनो राजा राज्य करतोहतो, तेने रत्नवती नामनी स्त्री हती.॥१८०॥ हवे ते सुदत्तनो जीव मृत्यु पामीने ते रत्नवतीना उदरने विषे आव्यो, अने तेणे अवसरे उत्तम लक्षणवाला पुत्रने जन्म आप्यो. // 181 // क्षेमंकर राजाए महोत्सव करीने ते पुत्रनु रत्नध्वज एवं प्रीतिकारी नाम पाडयु. // 182 // माता पिताना इपनी साथे नवीन चंद्रनी पेठे वृद्धि पामता ते रत्नध्वजे सर्वे अथ येन कृतं वस्त्रयुगलारोपणं जिने // कथयामि फैलं तस्य, नव्या गुणुत नीवतः॥१७॥ अत्रास्ति चरतोत्रे, जयंती नामतः पुरी // तत्र देमंकरो राजा, तस्य रत्नवती प्रिया॥१७॥ जीवस्तस्य सुंदत्तस्य, मृत्वा तत्कुदिमागतः // तया च सुषुवे पुत्रः, समये °नलक्षणः // कृत्वा महोत्सवं तस्य, पुत्रस्य पृथिवीपतिः॥ रत्नध्वज इति प्रीतिधाम नाम' विनिर्ममे // - साकं 'पित्रोः प्रमोदेन, वैईमानो नवेंदुवत् ॥कलाः सर्वाः स जंग्राह, ताः पुंसों किले मनम्॥ सोऽन्येानीमग्रीष्मर्ती, निशायां धर्मपीडितः॥आसीनश्चशालायां, चंद्रपादानसेवत॥१॥ 'मित्रैः साकं से कुर्वाणः, सुन्नाषितकुतुहलम् // प्रेमीलया पॅरिस्पृष्टलोचनद्वितीयोऽनवत् // सुप्तेषु तस्य मित्रेषु, तत्रैव कलकुटिमे // अईरात्रेऽचैलचंचूडचे खेचराग्रणी // 16 // * तेस्योत्तरीयमुत्तंगविमानवलन्नीस्थितम् ॥पात वातवेगेन, सौधे रत्नध्वजोपरि // 17 // | कलाओनो अभ्यास करयो के ते पुरुषोने निश्चे आभूषण छे. // 183 // एक दिवस भयंकर उनालानी रुतुमा रा त्रीने विषे तापथी पीडा पामतो ते रत्नध्वज चंद्रशालामां वेठो छतो चंद्र किरणोनी शीतल हवा लेतो हतो.॥१८॥ बली मित्रोनी साथे सभापितन कतहल करतो एवो ते रत्नध्वज निद्राथी व्याप्त एवा वे नेत्रवालो थयो. अर्थात उघी गयो. // 185 // वली ते चंद्रशालामां तेना मित्रो पण उघी गया, एवामां अर्द्ध रात्रे विद्याधर राजा चंद्रचूड त्यांथी निकल्यो. // 186 // ते चंद्रचूडनु उंचा विमानना काष्ट उपर रहेलुं पासे राखवानुं वस्त्र वायुना वेगथी