________________ धम्मि- हा सोऽहं / बाह्यस्त्रीन्यो विभवनाः // 66 // बाल्येऽपि पंचधात्रीणा-मकस्थो योव्यवाषि॥ मही पीठे बुउन्नस्मि / स एवाहमनाथवत् // 67 // जैनश्रुतामृताखाद-मनुयापि पापिनि // किं सुरा""| पानव्यसने / रसने गलितासि न // 67 // अस्तं प्रयाति सूरोऽपि / वारुणीसंगतो ध्रुवं // यदहं वारुणीयोगे / जीवनस्मि तदद्लुतं // 6 // // जाता ये योषितामिष्टा-स्ते भ्रष्टा एव धर्मतः // वि. षवल्लीवनं लीनाः / कचिङीवति ते नराः // 70 // वरं वज्रनिपातेन / शतधा चूर्णितं शिरः // च धात्रीजना खोळामां रहीने जे या हुं वृद्धि पाम्यो बुं, तेज हुं बाजे एक कंगालनीपेठे पृथ्वीपर लोट्या करुं बु ! // 67 // वळी हे पापणी जिह्वा ! जैन शास्त्ररूपी अमृतनो स्वाद अनुजव्या उतां पण मद्यपान करती वेळाए तुं गळी केम न ग? // 6 // मद्यना (पश्चिम दिशाना) संगथी शूरो मनुष्य (सूर्य ) पण खरेखर नाश (अस्त ) पामे बे, परंतु हुं जे मदिराना संगथी | पण हजु जीवतो रह्यो ळ ते पाश्चर्य ! / / 65 // जे पुरुषो स्त्रीने इष्ट थया ने तेन धर्मयी ब्रटज थया , केमके विषवल्लीना वनमां गयेला कोश्कज पुरुषो जीवता रही शके जे. // 10 // वज्र पमवाथी चूरेचूरा थयेवू मस्तक सारं , परंतु पापी स्त्रीना वचनना विश्वासथी हणाये मः | P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust