________________ 116 धम्मि- या // 42 // पशुपालोऽयमित्यस्य / न विधेयावहीलना // दधाति पशुपालाख्यं / गिरीशोऽपि न माई किं हरः // 43 / / अर्थो लेखः कवित्वेऽस्य / प्राकृतेऽपि स कश्चन // अस्माकं दिव्यवाग्गाजा-मपि यो देव दुर्लनः // 14 // न जापानियमः कोऽपि / स्तुमः काव्येऽर्थसंगति // गौरव्यं गोरसे न्यू ने / यहा तहापि भोजनं // 45 // परमीहग्गुणोऽप्येष / सति त्वय्यपि नायके // आस्ते वंठ . वैकाकी / तन्मनोऽतिदुनोति नः // 46 // देवाश्च ऋषयश्चैव / मानवाः पशुपदिणः // सर्वे बंदच. चारी तेनी अवगणना न करवी, केमके गिरीश एवो महादेव पण शुं पशुपालनुं नाम धारण करतो नथी? // 43 // वळी हे स्वामी! बानी प्राकृत कवितामां पण कोश्क एवा प्रकारनी अर्थच मत्कृति रहेली ने के जे अमारी संस्कृत वाणीमां पण याववी मुश्केल थइ पमी ने. // 4 // व. ली जाषामाटे कई विचारवाजेवू नथी, फक्त काव्यनी अर्थचमत्कृति अमो वखाणीये जीये, केमके गोरस कदाच न्यून होय तो पण सारीरीते बनावेलु भोजन बादर करवालायक थाय ने. // 4 // परंतु श्रावो गुणवान जतां बने थाप तेना स्वामी बतां ते वांढानीपेठे जे एकाकी रहेलो. ते. थी अमारुं मन बहु कचवाय जे. // 46 // वळी हे स्वामी! देवो ऋषिन मनुष्यो पशु तथा प. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust