________________ साथै | धम्मि- स्त्वं / परलोकहितोऽनवः / / नक्त्वा तथा सुतोपायं / देहि मे हितमैहिकं // // निश्चितं पु. | एयवानस्मि / यत्प्रापं तव दर्शनं / / त्वां ह्यपुण्या न वीदंते / कौशिका व नास्करं / / 70 // वि. | द्यमानापि विद्या चेद्-दुःखना नोपयुज्यते // समानेऽनुपकारित्वे / तत्ते मे च किमंतरं // 1 // | तं प्रत्यूचे ततः साधु-रहो सावद्यमीदृशं / न बमहे महेन्यामी। वयं धर्माधिकारिणः // 2 // साधवः शमयंत्यति–मिति सत्यैव वाग्यतः // एषां सा कापि शिदा या / लोकदैताधिनाशिनी // इने परलोकना हितकारी थया गे तेम पुत्रोत्पत्तिनो उपाय कहीने मने था लोकर्नु हित पण थापो? // 70 // खरेखर हुं पुण्यवान बु, केमके मने थापनुं दर्शन प्राप्त थयुं बे, वळी धुवको जेम सूर्यने तेम आपने पुण्यरहित माणसो जो शकता नथी. // 70 // ती विद्या पण जो दुःखीनने उपयोगी न थाय तो पनी तुल्य अनुपकारीपणुं थवाथी यापमां बने मारामां शुं तफावत रह्यो ? // 1 // ( ते सांजळी ) मुनिराजे तेने कडं के हे शेठजी! अमो यावं आरंनयुक्त कही शकीये नहि, केमके अमो तो आ धर्मना अधिकार छीये. // 2 // साधुन सुख शांत करे ने ए वात सत्य बे, परंतु तेन को एवी शिखामण पापी शके के जे बन्ने लोकनां खो. PP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust