________________ "धम्मि- पार्जयितुं श्रियं // सापि नारीव निर्माथा / नंदिष्यति कियत् प्रिय / / 60 // त्वत्तः पश्चाज्जर जुते कीर्तिश्चाहं च ते प्रिये // क्रमिष्यावः क्रममपि / पुत्रालंबं विना कथं // 61 // यत्नतो यत्त्वया निन्ये / वृधि तत्त्वदनंतरं / भवनं च धनं चान्ये / चोदयंति तनयं विना // 6 // इति तदाग नदीस्रोतो-धूतधीस्मिपर्वतः // श्रेष्टी जगाद तां युक्त-मुक्तमेतत्त्वया प्रिये // 63 // जानेऽहमपि | यददुःखं / गृहिणां नास्त्यतः परं // परं प्रयते देवा-यत्ते कार्ये नरैः कथं // 64 // यतिष्यते तथा | यत्न करोगे, ते पण स्वामीरहित स्त्रीनीपेठे केटलो वखत ननी शकशे? // 60 // वळी हे स्वा. मी! आपनी पाळ यापनी प्रियारूप एवी कीर्ति बने हुं घडपणने लीधे पुत्ररूपी बालंबनविना एक पगडं पण शीरीते चाली शकीशुं? // 61 // वळी यापे यत्नथी जे था घर तथा धन वधा. युबे, ते पुत्रविना थापनी पारळ बीजा नोगवशे. // 6 // एवी रीतनां तेणीनां वचनरूपीनदीना प्रवाहथी नष्ट थयेल ने धैर्यरूपी पर्वत जेनो एवा ते शेठे तेणीने क{ के हे प्रिया तें या युक्त कहे . // 63 // हुँ पण जाणुं बुं के गृहस्थीनने बाथी बीजू वधारे दुःख नथी, परंतु दै. | वाधीन कार्यमां मनुष्य शीरीते समर्थ थर शके ? // 64 // तो पण हे चंद्रमुखि! हं पुत्रमाटे प्र. P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust