________________ सुशीला वाला और भोगने वाला भी वही है। जीव का स्वभाव प्रायः उर्ध्वगति वाला है। लेकिन पूर्व भव में किये गये कर्मों के कारण वह विचित्र तरीके से इस जगत में परिभ्रमण करता है। वायु के तेज झोंके से जैसे दीपक की लौ जिस प्रकार प्रकम्पित होती रहती है, वैसे ही यह जीव भी अनेक प्रकार की जीव-योनियों में भटकता हुआ सुख-दुःख का अनुभव करता है। अतः मैंने निर्णय किया है कि, मेरी आत्मा जो कर्म रूपी पंक से लिप्त है, उसे मैं तप रूपी जल से स्वच्छ करूंगा..." और गुणसेन जीवन का स्वरूप सविस्तार समझाकर मौन हो गये। इस सम्बन्ध में अब भला सुमन्त्र क्या तर्क करता? अतः उसने अपनी अज्ञानता मान्य कर राजा के निर्णय को सहर्ष सिर-आँखों पर रख लिया। तत्पश्चात् तुरन्त ही भीमसेन को राजपरिषद् में उपस्थित होने का संदेश भेजा। पिता की आज्ञा प्राप्त होते ही भीमसेन राज सभा में उपस्थित हुआ। सर्व प्रथम उसने महाराज गुणसेन को विनय पूर्वक प्रणाम किया और विनीत स्वर में बोला : “पिताजी! आपने मुझे याद किया?" . "हाँ वत्स,! मुझे तुमसे एक महत्त्वपूर्ण कार्य है और विश्वास है कि तुम इसे अवश्य करोगे।" भीमसेन को अपने पास के सिंहासन पर बिठाते हुए गुणसेन बोले। “आपकी आज्ञा पूर्ण रूप से मान्य है, पिताजी।" ___"बेटा भीमसेन! तुम तो जानते ही हो कि अब मेरी उम्र हो चुकी है। दिन ब दिन मेरे अंग अब शिथिल बनते जा रहे हैं। कौन जाने, यह आयुष्य कब पूरा हो जाय?" 'पिताजी! ऐसी अशुभ बात न कहिए। आप तो दीर्घायु हैं। भीमसेन बीच में ही स्नेह सिक्त और भक्ति पूर्ण स्वर में बोल उठा। __'वत्स! यह कोई अपने हाथ की बात थोड़े ही है। अब तो जितना जी लें, उतना ,बहुत और फिर मैं तो पका हुआ पत्ता हूँ। कभी भी झड़ सकता हूँ। अतः मैंने निर्णय कर लिया है कि मैं अपना शेष जीवन दीक्षावस्था में पूर्ण करू| यह मनुष्य भव मैं हार जाऊँ, उससे पूर्व ही जितना बन सके, उतना उसे सार्थक कर लेना चाहता हूँ।" 'पिताजी! वास्तव में आपका निर्णय उत्तम है।' "कहिये, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?" "वत्स! तुम्हारा जन्म राज परिवार में हुआ है और तुम एक नरेश की सन्तान हो! यदि मैं दीक्षा ग्रहण कर लूं और राजपाट छोड़ दूं तो फिर भला इस राज्य का पालन कौन करे? यह न भूलो कि तुम मेरे ज्येष्ठठ पुत्र हो। अतः मेरे पश्चात् तुम्हें ही यहाँ के सूत्र ग्रहण कर राज सिंहासन सम्हालना है। मैं अब धर्मानुरागी बनता हूँ तुम्हें राज धुरन्धर बनना होगा।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust