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________________ सुशीला 1. श्री लागर परि जानन 47 शवीर जैन भारापना केन्द्र, प्रश प्रातः और सन्ध्या, सुख-दुःख, आशा औरणानिसला, जिय और सासजय, सम्पन्नता और विपन्नता जैसे द्वन्द्व तो पृथ्वीतल पर निरन्तर चलते ही रहते हैं। कालचक्र अबाधरूप से नियमित घूमता ही रहता है। आयुष्य पल प्रतिपल शनैः शनैः क्षीण होता जा रहा है और अन्ततः जीव काल का ग्रास बन जाता है। ऐसे संकट काल में परिवार में से कोई भी उसके साथ नहीं जाता, ना ही उस समय पुत्र, पत्नी, माता, पिता, मित्र, स्वजन आदि कोई काम आता है और जीव को सब कुछ यहीं छोड़कर परलोक के लिये प्रस्थान करना पड़ता हैं। उस समय केवल उसके वे सत्कर्म और दुष्कर्म साथ चलते हैं, जो उसने इस भव में किये हों। शेष जो है वह सब यहीं पर छोड़ कर चले जाना पड़ता है। ____अतः गुरू महाराज ने जो कुछ कहा है वह निरपेक्ष सत्य है! सर्वज्ञ भगवन्त द्वारा प्रतिपादित एवम् त्रिलोक में विख्यात ऐसा जैन धर्म ही परम कल्याणकारी और सर्वश्रेष्ठ है। उसकी आराधना मात्र से संसार की समस्त माया का, कष्ट, रोग एवं उपद्रवों का, जन्म, वृद्धावस्था तथा मृत्यु का समूल नाश होता है। आत्मा पापकर्मों से मुक्त हो, मोक्ष पद की अधिकारिणी बन जाती है। फलतः मुझे भी अब इसी धर्म की तन मन से आराधना करनी चाहिए और काल मुझे अपना ग्रास बना ले उससे पूर्व ही मुझे उसकी साधना में दतचित्त हो लग जाना चाहिए। अन्यथा इस जीवन का क्या भरोसा? गुणसेन ने इसी प्रकार के आत्म-चिन्तन में पूर्ण रात्रि व्यतीत की। दूसरे दिन प्रातः उसने प्रतिहारी प्रेषित कर अपने मंत्रियों को राजमहल में आमंत्रित किया। सब के आ जाने के उपरान्त उसने गंभीर स्वर में कहा : "प्रिय मंत्रीगण! विगत प्रदीर्घ समय से मैं राज संचालन के कार्य में प्रवृत्त रहा . हूँ। उसके लिये मैंने असंख्य पापों का बन्धन किया है। किन्तु अब मैं वृद्ध हो चला हूँ। अब मेरे में न तो पूर्वगत शक्ति रही है, ना ही क्षमता भी। साथ ही युवराज भीमसेन भी बड़ा हो गया है। राज सिंहासन सम्भालने के वह सर्वथा योग्य बन गया है। अतः मैंने गहन चिन्तन और मंथन के पश्चात निर्णय किया है कि मानव-जीवन हारने के पूर्व ही मैं अपने पास शेष बचे आयुष्य का प्रमाद रहित होकर क्यों न उपयोग कर लूं। अतः अपना हेतु साध्य करने के संकल्प से मैंने संसार त्याग कर दीक्षा ग्रहण करने का दृढ़ निर्णय किया है, ताकि मेरा लोक और परलोक दोनों ही सुधर जाय..." . . किन्तु मंत्री सुमंत्र को राजा गुणसेन का कथन रास न आया। इसमें उसे राजा के अज्ञान का प्रदर्शन ही लगा। अतः वह अपना ज्ञान प्रदर्शित करने के आशय से बोला : ___ "राज शिरोमणी! आपके ये विचार मुझे आकाश-कुसुमवत् प्रतीत होते हैं। कारण P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036420
Book TitleBhimsen Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size241 MB
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