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________________ आचार्यदेव हरिषेणसूरजी 263 . ..उसने जल-क्रीडा करते हुए एक जलचर को पूरी ताकात से बाहर खिंच निकाला। उसने एक कार्य महज मौज-मजा के लिए किया था। अतः जल बाहर उसको तडपता देख, मानसिक आनन्द अनुभव कर रहा था। अल्पावधि में ही जलचर प्राणी आकूल-व्याकूल हो उठा। उसकी साँस अवरुद्ध होने लगी। वह रह रह कर छटपटाने लगा। ...कुछ देर तक कामजित् उसकी वेदनावस्था की मजा लेता रहा... प्रसन्नता कि हिंडोले झूलता रहा। किन्तु आखिरकार उसे उस मूक प्राणी पर दया आ गयी और उसने उसे तुरंत बंधन-मुक्त कर सरोवर के अथाह जल में छोड दिया।..- - - जलक्रीडा सम्पन्न कर सदल-बल उसने वन-उपवन में प्रवेश किया। अनुपम वनश्री का आस्वादन करता इधर-उधर भटकने लगा। तभी अचानक उसकी दृष्टि एक पथिक पर पडी। सहसा वह धींगा-मस्ती पर उतर आया। उसने पथिक को लूट लिया। पथिक एक जौहरी हो, मणि-मुक्ता के विक्रयार्थ कहीं जा रहा था। मका .... किन्तु इस तरह अचानक लूटे जाने से व्यथित हो उठा और घबरा कर कल्पांत करने लगा। लगभग अचेत हो, जमीन पर लुढक गया। वैसे कामजित् को मणि-मुक्ताओं की कतई आवश्यकता न थी। वह कोई चौर-लूटेरा नहीं, बल्कि विशाल साम्राज्य का अधिपति था। उसके पास सब कुछ था। किन्तु महज-क्षणिक विनोद के लिए उसने यह कार्य किया था। उससे जौहरी की दयनी अवस्था देखी न गयी। अतः उसने उसकी मणि-मुक्ताएँ लौटा दी। - वहाँ से कुछ आगे बढा तो मार्ग में एक मंदिर दृष्टिगोचर हुआ। मंदिर में एवं सुकुमारी देवी की भक्ति में लीन-तल्लीन थी। प्रीतिमति की दृष्टि अचानक उसकी गर्दन पर पडी। वह रलहार पहने हुए थी। रत्नहार देख, उसकी नीयत बिगड गयी। उसने लालची नजर से रत्नहार की ओर देखते हुए कामजित् से कहा : "मुझे यह हार चाहिए।" कामजित् ने शीघ्र ही डरा-धमका कर कन्या से उसका रलहार छिन लिया। सुकुमारी भयभीत हो, क्रंदन करती रही। उसकी धिग्धी बंध गयी। रानी का मन द्रवित हो गया। अतः उसने दयार्द्र हो, रत्नहार लौटा दिया। - वन-क्रीडा पूरी कर कामजित् ने नगर की ओर प्रयाण किया। - नगर में प्रवेश करते समय कामजित् की नजर जीर्ण-शीर्ण और मलिन वस्त्र परिधान किये हुए एक वणिक (वैश्य) पर पडी। वह अपनी पत्नी के साथ नगर से बाहर निकल रहा था। दोनों का मटमैले पोशाक और शारीरिक अवस्था का अवलोकन करने पर अनायास ही ऐसा प्रतीत होता था कि, 'वे अत्यंत दुःखी हो, विपदा के मारे हैं।' दोनों पर दया कर कामजित् ने उन्हें अपने निवास में काम पर रख लिया। वैश्य-पली स्वभाव से सौम्य एवम् विनम्र थी। वह रात-दिन कठोर श्रम करती थी। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036420
Book TitleBhimsen Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size241 MB
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