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________________ आचार्यदेव हरिषेणसूरजी 261 "अरर! ज्येष्ठ भ्राता ने ही मेरे साथ छल किया... धोखेबाजी कर दी! जिन्हें मैंने पिता तुल्य माना, उन्हीं आर्यपुत्र ने मेरा विश्वासघात किया... मुझे चकमा दे दिया!" और अचानक प्रजापाल का रुदन अश्रु-धारा का स्वरूप धारण कर प्रवाहित हो गया, विद्युन्मति भी शोकातुर हो, करुण क्रंदन करने लगी। प्रजापाल-विद्युन्मति की दयनीय अवस्था परिलक्षित कर पाषाण-हृदया सेविका देवदत्ता का हृदय भी पिघल गया। फल स्वरूप उसने प्रीतिमति को नाना प्रकार से समझाने और ऐसा अघटित कार्य न करने की सलाह दी। उसने संकेत किया कि, विश्वासघात का परिणाम अच्छा नहीं होता। अतः कृपा कर छोटी रानी के अलंकार अविलम्ब लौटा दीजिए और जो हुआ सो भूल जाइए। परन्तु प्रीतिमति थी कि, उसने किसी की बात नहीं मानी, सो नहीं मानी। इस प्रकार माया एवम् छल-कपट का जाल फैला कर प्रीतिमति ने निष्कट कर्म-बंधन किया। विश्वासघात के पाप की वह शिकार बनी। किन्तु उसे अपने पापकर्म से कोई मतलब नहीं था। उसका एक ही उद्देश्य था। येनकेन प्रकारेन देवरानी के अलंकार हथिया लेना सो हथिया कर अत्यंत प्रसन्न थी। ऐसे में एक बार वाराणसी में आचार्य भगवंत का शुभागमन हुआ। उनके साथ तेजस्वी एवम् तपस्वी शिष्यों का विशाल समुदाय था। Scandane Nim GINDA II ATT SANAV Pilliயாயப்பயாய்ப் II KONMMU TE DELILALIRITERTAITICIAL हरि सोमाठरा आचार्य भगवन्त की प्रेरक देशना सुन, पश्चाताप के साथ रानी वियुन्मति को उसके अलंकार सौप रही है P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036420
Book TitleBhimsen Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size241 MB
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