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________________ आचार्यदेव हरिषेणसूरजी 235 ____ विश्व में रहे जिन-जिन पदार्थों का जिसने मुक्त भाव से सेवन किया है। वास्तव में उक्त जड पदार्थ स्वभाव वश समय-समय पर विलक्षणत्व को प्राप्त होते हैं। ____ अतः हे भद्र! पुत्र, पली, मित्र, बंधु और माता-पिता ठीक वैसे ही सर्व पदार्थ... धन-संपदा आदि सभी समय-समय पर परस्वभाव को प्राप्त होते हैं। इस तरह अत्यन्त-भावना की जड एवम् चेतन की भिन्नता को समझ कर हे सज्जनो! संसार-सागर में नौका समान रूप धारण कर आत्म-क्रीया में रत रहो। वस्तुतः हमारी काया रूधिर, आँते, मांस-मज्जादि पींड रूप अनेक नाडियाँ एवम् मांस-पेशियों के जाल से गुंफा हुआ है। इसमें पवित्रता का अंश मात्र भी अस्तित्व नहीं है। फिर भी मूर्खजन इसके मोह में पूर्णतया अधीन बने हुए हैं और इसकी आवश्यकताओं को परिपूर्ण करने हेतु लक्षावधि कुकर्म करते रहते हैं। ____ यह मानव-शरीर निसंदेह दुर्गंध की खान समान है। इसके पोषण के हेतु प्राणीमात्र को असंख्य दुःख और यातनाएँ सहनी पडती हैं। यदि इसकी चमडी को उतार दिया जाए तो जो स्वरूप शेष रहेगा उसे चट करने के लिए कौए और कुत्ते टूट पडेंगे ऐसी उनकी रचना है। साथ ही इसका स्वभाव क्षण-क्षण में क्षणभंगुर होने का है। नष्ट-विनष्ट होना इसका प्राकृतिक धर्म है। अतः हे बुद्धिमान पुरुषों! इसका सर्वस्वी मोह तज कर उसके प्रति तुम्हारे मन-मस्तिष्क में रही अगाध ममता का नाश करना अत्यावश्यक कर्म है। कारण यह काया कृमि, कीटकों से युक्त हो, पूर्णतया मलीन है। हड्डियों का ढांचा है... मरूज एक अस्थिपंजर है और है अगणित दुःखों का एकमात्र केन्द्र बिंदु। नानाविध रोग-पीडाओं का धाम है। प्रायः अनंत क्षोभ और अशांति का कारण है। सतत अरूचि उत्पन्न करनेवाला है। मृत्यु इसका स्वभावगुण हो, अंत में भस्मसात होनेवाला है। क्या तुम्हें अहसास है कि, ऐसा यह शरीर किसी के स्वाधीन होगा? अपने जन्मजात स्वभाव और गुण-धर्मों का परित्याग करेगा? हे भद्रजनो! प्रायः ऐसी अशुचि भावना में रत रहना चाहिए। साथ ही निरंतर इस भावना का सेवन करने से आत्मा शीघ्रातिशीघ्र आसिक विकास को प्राप्त होता है। मन, वचन और काया की क्रिया को योग कहा जाता है। कर्म के विभिन्न प्रकार के भेद से भिन्न ऐसे उसके दो प्रकार होते हैं : शुभ आम्रव और अशुभ आम्रव। इन दोनों के क्रिया-योग से जीव उच्चता एवम् नीचता को प्राप्त होता है। यम, नियम एवम् विराग से युक्त, तत्त्वचिंतन तथा प्रशमरस में निमग्न ऐसा, ठीक वैसे ही शुद्ध लेश्या में अहर्निश अनुगत शुभ व शुद्ध मन प्रायः भावना के माध्यम से शुभ आम्रव की श्रेष्ठ मित्रता करता है। जबकि कषाय रूपी दावानल के आतप से अभितप्त, विषय वासना से आकुल-व्याकुल हो, उद्विग्न बना और सदैव विषयों में रत मन, संसार-सागर में निरंतर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036420
Book TitleBhimsen Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size241 MB
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