________________ आचार्यदेव हरिषेणसूरजी 229 किन्तु पगले, अभी तुम्हारी आयु ही क्या है? वैसे तुम मुझ से बहुत छोटे हो। साथ ही तुमने अभी इस समृद्ध संसार में देखा ही क्या है? यहाँ का अतुल वैभव और धन-संपदा का तुमने उपभोग ही कहाँ किया है? आमोद-प्रमोद और सुख-चैन को लूटने का तुम्हें अवसर ही कहाँ प्राप्त हुआ है? और फिर संयम कोई बच्चों का खेल नहीं है। इसके लिए पर्याप्त सहन-शक्ति और आत्म-नियंत्रण की आवश्यकता है। अरे, संयम-ग्रहण के उपरांत बाइस-बाइस परिषहों का सामना करना पडता है। अरे मेरे भाई! यह सब सहन करने के लिए अभी तुम बहुत छोटे हो। तुम्हारी को दिलो-दिमाग से निकाल दो। उपयुक्त अवसर आने पर मैं स्वयं तुम्हें प्रवज्या-ग्रहण करने की अनुमति दूँगा।" भीमसेन ने हरिषेण को समझाने के स्वर में कहा। "किन्तु तात्! अविनय के लिए क्षमा करें। आयु में अवश्य मैं आपसे छोटा हूँ। परन्तु इस छलना आयु का क्या विश्वास? और फिर न जाने कब मृत्यु का निमंत्रण आ जाए?" और छोटी आयु में जो धर्माराधना हो सकती है, वह भला वृद्धावस्था में कहीं हो सकती है? तत्पश्चात् भी भीमसेन ने हरिषेण को नानाविध समजाने की कोशिश की... उसे दीक्षा ग्रहण न करने का आग्रह किया। परन्तु हरिषेण ने उनकी एक न सुनी। वह अपने संकल्प पर अंत तक अडा रहा। क्योंकि उसकी आत्मा जागृत हो गयी थी। उसकी आंतरिक भावना तीव्र से तीव्रतम हो गयी थी। फल स्वरूप शुभ-र्य में अवरोध उत्पन्न करने के बजाय उसने हरिषेण को सहर्ष अनुमति प्रदान की। आचार्यदेव हरिषेणसूरिजी भीमसेन ने सोल्लास युवराज हरिषेण के संयम-ग्रहण करने की अनुमति प्रदान की। फलतः हरिषेण के आनन्द का पारावार न रहा। उसका मन-मयूर हर्षविभोर हो, नृत्य कर उठा| भीमसेन की अनुमति में सुशीला की सम्मति का भी समावेश था। उसने भी अन्तःकरण की गहराइयों से उत्फुल्ल हो, उसे आशीर्वाद प्रदान किया। ज्येष्ठ भ्राता एवम् मातृ-तुल्य भाभी की सम्मति प्राप्त कर हरिषेण तुरंत प्रातः स्मरणीय आचार्य भगवंतश्री धर्मघोषसूरीश्वरजी की सेवा में कुसुमश्री उद्यान में पहुँच इस अवधि के दौरान भीमसेन ने बड़े ही धामधूम एवम् आडम्बरपूर्वक राजगृही में दीक्षा-महोत्सव का आयोजन किया। नगर के समस्त जिनालयों में अपूर्व अर्हत्-पूजन सम्पन्न किये गये। जिन प्रतिमाओं की अद्भुत अंगरचना की गयी। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust