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________________ 228 भीमसेन चरित्र आपने मानवभव की दुर्लभता का ज्ञान ऐसी अचूक वाणी में दिया है कि अब मैं मानव-भव को हार जाना नहीं चाहता, बल्कि आत्म-साधना की सोपान चढना चाहता हूँ। मेरा मन रह-रह कर आप द्वारा निर्देशित धर्म की आराधना करने के लिए उत्सुक है।" हे भद्र! तब विलम्ब किस बात का है? हारी बाजी दुबारा जीती नहीं जा सकती। ठीक वैसे ही गया अवसर पुनः लौट कर नहीं आता। अतः दीक्षा ग्रहण कर आत्म कल्याण में सत्वर लग जाओ।" "हे तारणहार! मैं आज ही अपने ज्येष्ठ बंधु से अनुमति प्राप्त कर शीघ्रातिशीघ्र आपकी सेवा में लौट आऊँगा। अब एक पल भी असार संसार में रहना अच्छा नहीं लगता।" "बडों की आज्ञा प्राप्त करना आवश्यक है। अतः उनसे आशीर्वाद ग्रहण कर तुरंत लौट आओ। प्रभु के धर्म-द्वार सब के लिए सदैव खुले है।" तदनुसार हरिषेण तुरंत राजमहल में लौट आया और शीघ्र ही भीमसेन के कक्ष में पहुँच गया। उसने विनीत स्वर में अपनी भावना से उन्हें अवगत किया। "हरिषेण! तुम्हारी उच्च भावना का मैं अनुमोदन करता हूँ। ऐसे उत्कट विचार मन में आना निःशंक सौभाग्य की बात है। वास्तव में तुम अत्यंत भाग्यशाली हो, वत्स! Tham JABILITD hdhdutti ____हरि सोनपुरा आचार्य भगवंत के चरणारविंदो में बैठा रहा और अपने कारण भीमसेन को उठानी पड़ी भारी विपत्ति के पापों को नष्ट करने का उपाय पूछता हुआ हरिषेणा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036420
Book TitleBhimsen Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size241 MB
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