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________________ गौरवमयी गुरुवाणी 223 तेल से भरा हुआ एक बडा कुण्ड है। कुण्ड के मध्य में एक स्तम्भ है। स्तम्भ पर राजा की पुतली लगी है। पुतली के नीचे उल्टे-सुलटे क्रम में चार चक्र सतत घूमते रहते है। इसके उपरान्त स्तम्भ पर एक बडा तराजू लटक रहा है। उपरोक्त तराजू में खडे रहकर नीचे उफनते तेल में पड रहे पुतली के प्रतिबिंब को परिलक्षित कर जो उसकी बायी आँख को तीर से भेदने में सफल होता है, उसे राघावेध सिद्ध किया माना जाता है। वास्तव में राघावेध साधना अत्यन्त कठिन और दुर्घट कार्य है। उसी प्रकार सुकृत के अभाव में उदेश्यविहिन यह मानव भव पुनः प्राप्त करना असंभव और दुष्कर है। . पूर्णिमा की एक रात्री में सरोवर तट पर वास कर रहे एक कछुये ने पवन के झोंके से सेवाल (काई) दूर होने पर अचानक चन्द्रप्रकाश के दर्शन किये। उक्त प्रकाश को देखने के लिये वह अपने परिवार जनों को बुलाने के लिये दौड पडा। और सब के साथ भागा भागा आया। परन्तु तब तक सब पूर्ववत् हो गया। सेवाल दुबारा सरोवर जल पर बिछ गयी। अतः कछुये को पुनः चन्द्रदर्शन नहीं हुआ। संभव है, उक्त कछुआ चन्द्र-दर्शन करने में पुनः सफल हो जाएँ। परन्तु मनुष्य जीवन को खोनेवाला जीव पुनः उसे लाख प्रयलों के उपरान्त भी प्राप्त नहीं कर सकता है। असंख्य योजन विस्तारवाला तथा हजार योजन गहराई वाला स्वयं भूरमण नामक समुद्र है। कुतूहलवश कोई देव उक्त समुद्र की पूर्व दिशा में बैलगाडी का जुआ डाले और पश्चिम दिशा में उसकी मेख। ऐसी परिस्थिति में इतने विशाल समुद्र की उन्ताल जल-तरंगों के मध्य क्या उक्त मेख जुए में घुस सकती है। कदाचित दैवयोग से उक्त मेख (कीला) अपने आप उसमें धुस जाय। परन्तु पुण्यविहीन मानव एक बार मानव भव को खो बैठे तो वह उसे दुबारा प्राप्त करने में असमर्थ होता है। एक देव ने मणि-मुक्ता से निर्मित एक स्तंभ का महीन चूर्ण बनाया। तत्पश्चात् चूर्ण को उसने एक नली में दूंस-दूंस कर भरा। उक्त नली को लेकर वह मेरू पर्वत के उच्चतम शिखर पर गया। वहाँ जाकर उसने नली को जोर से फूंक मारी और सारा चूर्ण यहाँ वहाँ उड़ा दिया... सर्वत्र बिखेर दिया। मणि-मुक्ता के अणु-परमाणु चारों दिशाओं में बिखर गये। ऐसी स्थिति में यदि उसे उक्त परमाणुओं को एकत्रित कर पुनः पूर्ववत् स्तंभ बनाने के लिये कहा जाए तो क्या यह संभव है? क्या वह दुबारा स्तंभ बनाने में सफल हो सकता है? ठीक उसी तरह एक बार प्राप्त मानव भव को इच्छानुसार नष्ट करने से/व्यर्थ गँवा देने से पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसी तरह मानव-भव प्राप्त होना यह भी अति दुर्लभ योग है। एक बार यदि उसका यथार्थ उपयोग नहीं किया जाए, प्राप्त भव में पुण्य-संयम कर उसे सार्थक नहीं किया जाए तो स्मरण रहे, मानव भव की पुनः प्राप्ति प्रायः असम्भवहै। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036420
Book TitleBhimsen Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size241 MB
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