________________ 216 भीमसेन चरित्र "गुरूदेव! आपके दर्शन कर मेरा जीवन सार्थक हुआ। आप सदृश पवित्रात्मा का दर्शन-वंदन करने का सौभाग्य प्राप्त कर मैं व मेरा परिवार धन्य हुआ। आप विद्वान् है। शास्त्र के ज्ञाता है। सांसारिक ताप के दाह से प्रज्वलित हम सबको अपनी वाणी रूपी शीतल जल से शान्त कीजिए हमें नव जीवन प्रदान कीजिए। प्रथम दृष्टि में ही आचार्यश्री को भीमसेन एक ऋजु आत्मा प्रतीत हुआ। धर्मोपदेश प्रदान कर प्रतिबोधित करना उनका कर्तव्य था। अतः भीमसेन की विनती सहर्ष स्वीकार करते हुये उन्होंने धर्मोपदेश आरम्भ किया। सर्व प्रथम पंच परमेष्ठि मंत्र का स्मरण किया। तीर्थकर भगवंतो की मृदु-वाणी में स्तुति की गुरु भगवंत की स्तवना करके प्रवचन आरम्भ किया। 'हे भव्य आत्माओं! धर्म और अधर्म के विवेक को पहचानो। धर्म से राज्य प्राप्त होता है। धर्म के प्रताप से उत्तम कुल की प्राप्ति होती है। धर्म से सुख व समृद्धि मिलती है। आरोग्य की प्राप्ति धर्म पर निर्भर करती है। यहाँ तक की मन की शांति व आराम भी धर्म से ही मिलता है अतः प्रत्येक जीव का आद्य कर्तव्य है कि वह धर्म की सदैव आराधना करे। भक्तजन! स्मरण रहे कि धर्म के प्रताप से ही आपको मानव जन्म प्राप्त हुआ है। मानव भव की प्राप्ति के पूर्व जीव को चौरासी लाख योनि में निरन्तर भटकना पडता है। प्रत्येक भव में जन्म-मृत्यु का असह्य दुःख सहन करना पडा इस चक्र में किसी भव में पर्याप्त पुण्यार्जन करने के कारण पांच इन्द्रियों से युक्त मानव शरीर प्राप्त हुआ है। महान शास्त्रकारों ने इसी मानव जन्म को समझाते हुये एक स्थान पर सुन्दर दृष्टान्त दिया। भरत क्षेत्र में वसंतपुर नामक एक नगर है। जहाँ किसी समय शतायुध नामक राजा राज्य करता था। चन्द्रवती शतायुध की रानी थी। रानी अपने नाम के अनुरूप ही अनिद्य सुन्दरी थी। शरद-पौर्णिमा के. चन्द्र की भाँति तेजस्विनी थी। एक दिन रानी चन्द्रवती अपने महल के गवाक्ष में खडी होकर राह चलते मानव, वाहन इत्यादि को देख रही थी। सहसा तभी उसकी दृष्टि वहाँ से गुजरते एक युवक पर पडी। युवक सुन्दर व आकर्षित व्यक्तित्व का धनी था उसके भोले धुंघराले केश किसी को भी अपनी और आकर्षित करने के लिये पर्याप्त थे। भव्य भाल-प्रदेश.... हृष्ट-पुष्ट शरीर विशाल नेत्र लम्बी भुझाएँ और चौडा सीना। उसकी चाल में एक अनोखा आकर्षण था। सिंह की भाँति वह एक एक डग भरता हुआ चल रहा था। ___चन्द्रवती बस उसकी और आकृष्ट हो, स्थिर दष्टि से निरन्तर उसे देख रही थी। जैसे जैसे युवक निकट आता गया उसकी छवि स्पष्ट, दृष्टिगोचर होने लगी। शने शने यह निकट से निकटतर होता गया। चन्द्रावर्ती उसके तेजस्वी रूप और व्यक्तित्व को निहार अपना आपा खो बैठी। विवेक शून्य हो गयी। मन चंचल हो उठा। कामदेव के शर-संधान से उसका रोम-रोम सिहर उठा। R ASHTRA वासना ने अपना फन उठाया। उसने मन ही मन दृढ निश्चय कर लिया कि वह इस पुरुष को अपना बनाकर रहेगी। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust