________________ 196 भीमसेन चरित्र भीमसेन ने सर्वप्रथम शीतल जल से स्नान किया। आँखों पर ठंडे पानी के छीटे मार अच्छी तरह से धोया। वह उनसे उस गंदकी को धो लेना चाहता था जिन नयनों के द्वारा उसने अप्सरा के कामुक नृत्य का अवलोकन किया था नयनों को भालीभांति स्वच्छ कर वह उक्त दृश्य को सदैव के लिये मिटा देना चाहता था। देह शुध्धि के पश्चात् वह आत्म - शुद्धि करने की तैयारी करने लगा। स्वच्छ वस्त्र परिधान कर वह सामायिक करने बैठ गया, आखिर मन जो ठहरा संभव है जाने अनजाने कही अशुभ संस्कार को ग्रहण कर ले। नृत्य के समय उसने अपने मन पर कठोर पहरा लगा दिया था। मन को लेश मात्र भी विचलित नहीं होने दिया। इतना सब करने के उपरांत भी शायद कही मन पर उसका क्षणिक प्रभाव रह गया हो तो? सर्वनाश होने में विलम्ब नहीं लगता। शत्रु का तो मुँह उठाते ही नाश कर देना चाहिये। फिर तो आन्तिरक दुश्मन। वह किसी के घट प्रेम से प्रवेश करता है और अरब के ऊंट की भाँति अवसर देखकर पांव पसारता है। यदि समय रहते इस पर कडी निगरानी न रखी जाय तो यह भव भवान्तर तक जीव को पतन के गहरे गर्त में धकेल देता है। अतः भीमसेन ने अपना मन आत्म ध्यान में निमग्न कर दिया। देह व आत्मा का वह चिन्तन करने लगा। इस तरह उसने अपने मन की अशुद्धियों को स्वच्छ कर डाला। साथ की ध्यान-साधना से अपूर्व शांति का अनुभव किया। जबकि देव अपनी चाल में असफल हो जाने के परिणाम स्वरूप यकायक अशांत हो उठा। यदि उससे कोई निवेदन करता कि सभी अनुकूल परिस्थितियाँ होने के उपरांत भी एक पुरुष परस्त्री का मूक निमंत्रण अस्वीकार कर देता है यह बात वह कभी स्वीकार नहीं करता। परन्तु यह तो उसका प्रत्यक्ष अनुभव था। वह अपने सभी प्रयत्नों में असफल सिद्ध हुआ था। अरे! प्रतिपक्षी के मन को वह तनिक भी उत्तेजित नहीं कर सका। खैर कुछ नहीं बिगडा है।दूसरी चाल चल कर देलूँगा देव ने अपने मन को समझाया। और एक नयी युक्ति मस्तिष्क में कांध गयी। प्रथम युक्ति के स्थान पर यह सीधी प्रभाव * डालने वाली थी। प्रथम कसौटी में सब कुछ प्रत्यक्ष था, जवकि दूसरी कसोटी आत्मा की हो, सार गर्भित बात थी। प्रथम में मन के प्रति आह्वान था, और द्वितीय में आत्मा के प्रति भीमसेन करुणामय था। प्राणभंग का दुख उससे देखा नहीं जाता था। इतना ही नहीं बल्कि दुःखी आत्मा का दुःख दूर करने के लिये वह प्रायः तत्पर रहता था। देव मन ही मन अनुभव कर रहा था कि जब मानव धर्म संकट में पडता है तब उसके लिये कौन सी परिस्थिति अनुकूल है। और कौन सी प्रतिकूल इसका निर्णय करने की आत्मशक्ति नहीं रहती। क्योंकि दोनों ही पक्ष में धर्म मूल आधार होता है। किसी में आत्म धर्म तो किसी पक्ष में दया धर्म को मूल्यांकित किया जाता है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust