________________ करो शस्त्र शणगारकरो 187 "देवसेन! मेरे वत्स, मैं तुम्हारी महत्वकांक्षा एवं आंतरिक इच्छा से भलीभांति परिचित हूँ। परन्तु इतना उतावलापन ठीक नहीं। सर्वप्रथम हमें वहाँ की पूरी जानकारी प्राप्त करनी चाहिये तदुपरांत ही हम कुछ निर्णय कर सकते है।" तो आज ही अविलम्ब गुप्तचरों को राजगृही जाने के लिये आदेश दिये जाय। अब हम और धैर्य नहीं रख सकते। सुदीर्धकाल तक काका का अन्याय सहन किया। अब हमें न्याय चाहिये और उसे प्राप्त करके ही रहेंगे। यह हमारी आन और शान का सवाल है। तात, अब हम मूक दर्शक नहीं बने रहेंगे क्यों? उसमें तुम्हारा क्या कहना है| केतुसेन की और दृष्टिपात करते हुये देवसेन ने तीव्र स्वर में कहा। भीमसेन की सेवा में दोनों ही उपस्थित हुए थे। अतः देवसेन ने केतुसेन का विचार जानने की दृष्टि से कहा। 'मेरा भी यही विचार है पिताजी! अन्याय करने वाला तो अपराधी है ही परन्तु उसको दीनभाव से सहन करने वाला भी उतना ही अपराधी होता है।" केतुसेन ने देवसेन का समर्थन किया। ‘ऐसा ही होगा! मेरे बच्चो! ऐसा ही होगा! . हम अवश्य ही अन्याय का विरोध करेंगे। परन्तु इसके लिये कुछ समय तक प्रतिक्ष करनी होगी पहले गुप्तचरों को वहाँ के समाचार लाने दो। तब हम अवश्य प्रस्थान करेंगे भीमसेन ने कुमारों को प्रोत्साहित करते हुए प्रत्युतर में कहा। .. दूसरे दिन विजयसेन के गुप्तचरों ने राजगृह प्रस्थान किया। कुछ माह के पश्चात् गुप्तचर लौट आये। उन्होंने राजगृही नरेश हरिषेण के वृतान्त से सबको अवगत किया। गुप्तचरों ने कहा : “हे राजन राजगृही की अवस्था देखी नहीं जाती। अनाथ नगरी के सदृश दिखाई देती है। राज्य का संपूर्ण शासन - तंत्र विश्वासपात्र मंत्रीगणों के हाथ में है। राजगृही का सचिव-मंडल पूरे राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले, राज्य कर रहा है। हरिषेण का मन राज-काज से पूर्णतया उठ गया है। भीमसेन के जाने के बाद हरिषेण पश्चाताप की आग में जल रहा है। उसके हाथों बहुत बड़ा अनर्थ हो गया। यही बात बार बार उसको पिडा पहुँचा रही है। उसे झकझोर रही है। हे भगवान! अब मेरा क्या होगा? पिता तुल्य ज्येष्ठ भ्राता को रातोरात भगा कर भला मुझे क्या मिला? हाय! न जाने वे कहाँ होंगे? किस अवस्था में होंगे? सदा ही सुख व आनन्द में रत मेरी पूज्य भाभी कैसे गुजर कर रही होगी। कोमल फूल से मासुम बच्चों का क्या हुआ होगा? उफ्। यह मैंने क्या अनर्थ कर दिया? नही, नही,! मुझे नहीं चाहिये यह राजपाट ज्येष्ठ बन्धु के बिना यह वैभव विलास मेरे किस काम के है। अरे! मुझे कोई बचालो! मेरे अंग अंग में दाह व्याप्त हो गया है। हे भगवान मेरे . भाई व भाभी जहां कही भी हो, उहें सुखी रखना... शांति प्रदान करना। इस प्रकार पश्चाताप दग्ध हरिषेण मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गया है। वह . P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust