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________________ 184 भीमसेन चरित्र इसी समय द्वारपाल ने राजसभा में उपस्थित हो समाचार दिया कि प्रतिष्ठानपुर से एक श्रीमंत का आगमन हुआ है और वे राजगृही नरेश से भेंट करना चाहते है। जैसे ही श्रेष्ठिवर्य ने द्वारपाल के साथ महल में प्रवेश किया तो भीमसेन की दृष्टि अचानक उस पर पड़ी और क्षणार्ध में ही वह सिंहासन से नीचे उतर पडा। "सुस्वागतम् श्रेष्ठिवर्य पधारिए, और आपका इधर कैसे आना हुआ?" इधर भीमसेन की विनय-वाणी श्रवण कर श्रेष्ठिवर्य भी शर्म से पानी पानी हो गये। वह वेग से आगे बढकर भीमसेन के चरणों से लिपट कर फकक-फकक कर रोने लगा "दयानिधान! मुझे क्षमा करें। मैंने आपको नहीं पहचाना। मैं तो आपके चरणों का सेवक हूँ। मेरे इस अपराध को क्षमा कर मुझे कृतार्थ करें। कृपासिंधु इन शस्त्रों को स्वीकार कर मुझे घोर पाप से मुक्त करें।" "भीमसेन। क्या यही वह सेठ है जिसने तुम्हारे शस्त्र जबरन धूत लिये थे। हा मातामह! सेठ तो यही है। परन्तु इनमें और उसमें जमीन आसमान का अन्तर HT गया है। पापबोध से पीडित होकर यह व्यथा के सागर में आकंठ डूब गये है। ताप कर रहे है। इनके स्वभाव में आमूलचूल परिवर्तन आ गया है। | "भीमसेन! तुम धन्य हो! और धन्य है तुम्हारी उदारता। अरिंजयने प्रशंसा के भाव ' / कहा। DISTANTRA TUMIA AICH MOHINILITY MANDIAN Mu हार सीमाहारा अरे! भीमसेन! क्या ये वही शेठ हैं कि - जिन्होंने तुम्हारे शस्त्रों को हड़प लिए थे? P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036420
Book TitleBhimsen Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size241 MB
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