________________ 168 भीमसेन चरित्र "महानुभाव! मुझे क्षमा कर दो। उस पाप के लिये अब बहुत पश्चाताप हो रहा है। सुज्ञ! मैंने रस ले लिया तो विधाता ने मेरी आंखे छीन ली। पाप का फल प्रत्यक्ष मिल चूका है। मैं नित्य तुम्हारी प्रतीक्षा करता रहता था। परंतु अफसोस, मुझ जैसे अंध को तेरे दर्शन कैसे हो सकते थे। आज तुम मिल ही गये हो तो भाई! मेरे उस अपराध को क्षमा करो। मैंने साधु होकर भी शैतान का काम किया हैं। द्रव्य की लालसा में आकर मैंने तेरे जैसे निर्दोष की अनेक आशाओं का खून किया है। महाभाग! इस रस को स्वीकार कर मेरे बोज को हल्का करों। सिद्धपुरुष रोता-रोता भीमसेन के पैरों पड़ा। भीमसेन को भी दया आ गयी। सिद्धपुरुष की रोशनी चली गयी इस करुण घटना से उसका हृदय भर आया।उसने प्रेम पूर्वक सिद्धपुरुष को खडा कर, अपनी बाहों में लेकर, अनुकम्पा से कहा। 'महात्मन्! उस बात को भूल जाओं!' 'जो होना था वह हो मा'। आपका अन्तर पश्चात्ताप से रो रहा है, यही पर्याप्त है। हृदय का सच्चा पस्तावा ही वन को सुखमय बना सकता है। आप तो ज्ञानी है, मैं आपको विशेष क्या कह कता हूँ। तथापि मेरे लायक सेवा-कार्य हो तो कहियेगा। ___ भीमसेन! तेरी उदारता को धन्यवाद! तुम तो हृदय विशाल करके जीत गया। मँगर मेरी कौन गति होगी? नही भीमसेन! तुम अपना हिस्सा स्वीकार कर मुझे उस पाप से मुक्त कर। सिद्धपुरुषने सुवर्ण रस के तुंबडे देने के लिये आग्रह किया। 'महात्मन्! आपकी जैसी इच्छा भीमसेनने संन्यासीके आग्रह का स्वीकार किया। उसी समय गजब हो गया। सिद्ध पुरुष के आंखों की रोशनी वापस लौट आयी। आंखें टमटमा कर देखने लगी। सिद्धपुरुष पूर्ववत् देखने लगे। उसने पलक मारकर देखा तो सामने ही राजमुकुट से शोभायमान भीमसेन खडा था। सिद्धपुरुष के आनंद का पारावार न रहा। अपना अंधत्व दूर हो जाने से उसकी अन्तरात्मा नाचने लगी। पुनः उसने भीमसेन का चरणस्पर्श कर उपकार माना। भीमसेन को बड़ा आश्चर्य हुआ। 'महात्मन् यह सब कर्म की बलिहारी है। आपके अशुभ कर्म से आपको अंधत्व मिला। वह कर्म खत्म होने पर शुभ कर्म का उदय होने पर, पुनः रोशनी प्राप्त हुयी। मैं तो एक मात्र निमित्त बना हूँ, दूसरा कुछ नही। सिद्धपुरुष आनंद और उपकार के भाव में आंसू बहा रहा था। राजन् आप सब चलते चलो. मैं अभी सवर्ण रस लेकर आ रहा है। मुझे तो अब कोई रस का खप नही है, क्योंकि सब रसों का सार आत्मरस, जो मुझे मिल गया हैं। अतः चारों तुम्बे लेकर मैं जल्दी ही राजमहल आ रहा हूँ, ऐसा कहकर सिद्धपुरुषने दौड लगाई, और थोड़ी ही देर में सब राजमहल पहूँच आये। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust