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________________ वधाता ऐसा ! कब तक? 143 धीरे सहलाया और इस प्रकार उसकी मूर्छा दूर करने का हर सम्भव प्रयास किया। तत्पश्चात् उन्होने बड़े मधुर व अपनत्व भरे शब्दों से कहा : ‘महानुभाव! आँखें खोलो। देखो तुम्हें नया जीवन प्राप्त हुआ है।' भीमसेन ने आँखें खोली। उसने देखा कि एक जटाधारी महात्मन् उसकी सार सम्हाल कर रहे हैं। उसके सीने व पीठ को सहला रहे है। "महात्मन्, आपने मुझे जीवन दान क्यों दिया? मुझे मर जाने दिया होता।" भीमसेन ने निराशाभरे स्वर में कहा। ___"महानुभव! जीने योग्य जीवन का परित्याग कर तुम मृत्यु का वरण करना चाहते हो। लगता है तुम बहुत दुःखी हो। दुःख से घबराकर तुम आत्महत्या कर रहे थे। ना समझ! ऐसा करके तो तुम दुःखों को स्वयं निमन्त्रण दे रहे हो। पूर्वभव के अशुभ फलों को तो वैसे ही तू इस भव में भोग रहा है और अब पुनः ऐसा नराधम कृत्य करके आनेवाले भव को भी क्यों बिगाड़ रहा है। मूर्ख न बन! स्वस्थ बन, आत्मशक्ति का संचार कर। अपने दुःख का मुझे वृतान्त सुनाओ। मैं तुम्हारी हर सम्भव सहायता कर तुम्हारे दुःखों को दूर करने का प्रयास करूगा।" साधु महात्मन् की स्नेह सिक्त वाणी सुनकर भीमसेन ने अपनी कहानी सुनाई। कहते कहते उसकी आँखें भर आई, साधु की आँखें भी नर्म हो गई। "नहीं वत्स! हिम्मत नहीं हारो। जो होना है वह होकर ही रहेगा। उसका शोक न करो... स्वस्थ बनो। चलो मेरे साथ। मैं स्वर्ण सिद्धि का प्रयोग करने जा रहा हूँ। मेरे इस प्रयोग में तुम सहयोग दो। मैं तुम्हें सिद्धि प्रदान करूगा, जिससे भविष्य में तुम्हें दुःख नहीं भोगने पड़ेगे। बस, जहाँ जाओगे, सुख ही सुख अनुभव करोगे।" उपकार की भावना से भीमसेन का हृदय गद्गद् हो गया। वह साधु महात्मन् के पैरों में गिर पड़ा। साधु ने उसके मस्तिष्क पर हाथ रख, उसे आशीर्वाद दिया। भीमसेन को इस स्पर्श से शान्ति का अपूर्व अनुभव हुआ। परिणाम स्वरूप समस्त निराशा को तिलांजली देकर वह साधु महात्मन् के साथ चल पड़ा। साधु ने जंगल की राह पकड़ी। घनघोर जंगल में से गुजरते हुए दोनों वेग से आगे बढ़ रहे थे। साधु ने राह में चार तूम्बे लिये। सिद्धि प्रयोग करने हेतु से उसने विशिष्ट स्थान पर प्रयोगानुकूल आवश्यक सामग्री पहले से ही एकत्रित कर रखी थी। दो तूम्बों में साधु ने तेल भरा था दो को रिक्त रखा था। रिक्त तूम्बे उसने स्वयं के पास रखे और तेल से भरे भीमसेन के हाथ में थमा दिये थे। दोनों हाथों में एक-एक तम्बा लिये भीमसेन कर्म की गति पर मन ही मन विचार करता हुआ, नत मस्तक उनका अनुकरण करता पीछे-पीछे चल रहा था। जंगल को पार कर दोनों एक पर्वत की तलहटी में पहुँच गये। पर्वत पर थोड़ी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036420
Book TitleBhimsen Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size241 MB
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